बीते पांच सालों को देखें तो एक आम किसान जो फसलें पैदा करने के लिए हाड़तोड़ मेहनत करता है, उपज के लिए न दिन देखता है, न रात। उसके लिए खेती अब घाटे का सौदा हो चुकी है, और चिंताजनक बात यह है कि हरित क्रांति के सिपाहियों का यह घाटा बढ़ता ही जा रहा है और किसान इसे मजबूरी में उसे ढो रहा है। जरूरत इस ठहराव को तोड़ने की है जो कृषि सुधारों के जरिए ही संभव है। इस बारे में बीते तीस सालों में सारी सरकारें इस पर सिर्फ चर्चा ही करती रही हैं लेकिन किसी से इस दिशा में कुछ ठोस करते नहीं बना।
सरकार द्वारा पेश कृषि बिलों को लेकर लोकसभा में भले ज्यादा विवाद न हुआ हो, लेकिन राज्यसभा में रविवार को इनके इर्दगिर्द जैसे दृश्य देखने को मिले, उन्हें भारत के संसदीय इतिहास के काले अध्याय में ही जगह मिल पाएगी। हालांकि जो दो विधेयक पारित किए गए हैं, उनके ऐतिहासिक महत्व से शायद ही कोई इंकार करे। इनमें एक किसानों को अपनी फसलें मंडियों से बाहर किसी को भी बेचने की छूट देता है तो दूसरा कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का रास्ता साफ करता है। इन दोनों विधेयकों को हरित क्रांति के बाद देश की खेती-किसानी का स्वरूप बदलने वाला सबसे बड़ा कदम कहा जा सकता है। रहा सवाल इन बदलावों की जरूरत का तो एक बात तय है कि भारत का कृषि क्षेत्र लंबे समय से समस्याग्रस्त है।
हरित क्रांति वाले इलाकों- पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र को छोड़ दें तो जोतों का आकार छोटा होते जाना पूरे देश की कृषि उत्पादकता के लिए बहुत बड़ी समस्या रही है। इसका हल खोजने की कोशिश में सहकारी खेती का अभियान छेड़ा गया लेकिन वह कोई खास नतीजा नहीं दे सका। छोटी जोतों के चलते खेती का आधुनिकीकरण नहीं हो पा रहा। जीडीपी में उसका हिस्सा लगातार घटता गया है। किसान आत्महत्याओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। जिन इलाकों से ऐसी खबरें नहीं आ रहीं, वहां भी उनकी लाचारी जगजाहिर है।
लंबे इंतजार के बाद इन विधेयकों के रूप में एक शुरूआत हुई है, लेकिन जिस माहौल और जिस अंदाज में इन्हें पारित किया गया है, उस पर अफसोस ही जताया जा सकता है। अगर विपक्ष राज्यसभा में मत विभाजन की मांग कर रहा था और सदन में हंगामा चल रहा था तो सभापति सदस्यों को शांत करने के लिए विभिन्न दलों के नेताओं से अलग से बात कर सकते थे। बहस होती और वोटिंग एक दिन बाद भी हो जाती तो क्या दिक्कत थी? विपक्ष ने भी संसद के जरिये देशवासियों को यह समझाने का मौका गंवा दिया कि इन विधेयकों में उसे वे कौन से खतरे दिखाई दे रहे हैं जिन्हें कोशिश करके भी दूर नहीं किया जा सकता। दोनों पक्षों की ओर से थोड़ी समझदारी बरतने पर पूरा देश इन बदलावों के गुण-दोष से परिचित होता और नए कानूनों को लेकर संदेह, अनिश्चय और असमंजस की स्थिति न बनती। अब तो किसानों और आम लोगों के जेहन में यह सवाल घर कर गये हैं कि आखिर केंद्र सरकार हर जनहितैषी मामलों में मनमानी पर क्यों उतारू हो जाती है..! ये कानून अंतत: भारतीय किसानों पर ही लागू होने हैं तो इस मुद्दे पर चर्चा से भागने की जरूरत क्या है? अगर चर्चा के बिना किसी भी विधेयक को पारित करने की कोशिश की जाती है तो इससे सरकार की मंशा पर ही सवाल उठते हैं। सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही बनती है कि वह उसकी चिंताओं का उचित मंच पर और उचित भाषा का प्रयोग करते हुए समाधान करे।
ऋषि पंडित
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