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World Water day: पानी के लिए स्वयं खोदी नहर, वाटर हार्वेस्टिंग से जिंदा हो गई 7 साल से सूखी बोरिंग

  • रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
  • पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।

World Water day: digi desk/BHN/ इस दोहे के माध्यम से कई सदी पहले रहीम ने मनुष्यों को पानी के महत्व को समझाने का प्रयास किया था। वहीं सभी धर्मों में पानी के महत्व का विभिन्न् प्रकार से चित्रण किया गया है। दुनिया को पानी का महत्व समझाने के लिए विश्व में 22 मार्च को जल दिवस मनाया जाता है। जल दिवस पर कुछ प्रेरणादायक जीवंत कहानियां है। इनमें ऐसे प्रेरणादायी व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने पानी को संरक्षित करने अथवा पानी की कमी से जूझते गांव को बचाने सालों तक मेहनत की है।

गांव को बचाने ग्रामीणों ने खोद दी नहर

नरवर (शिवपुरी) के पास मणिखेड़ा बांध को बनाने के लिए सरकार ने वहां रहने वाले आदिवासी समुदाय को विस्थापित कर उन्हंे काली पहाड़ी के पास विनेगा गांव रहने के लिए जगह दी। इस पहाड़ी पर पानी का कोई भी स्रोत नहीं था, जिसके कारण यह लोग खेती किसानी कर जीवन यापन कर पाते। कई सालों तक सरकारी अधिकारियों के पास चक्कर काटने के बाद भी जब कोई समाधान नहीं मिला तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सेवा भारती के पूर्णकालीक कार्यकर्ता दिनेश शर्मा के प्रोत्साहन पर इन आदिवासी समुदाय के लोगों ने नहर खोदना प्रारंभ कर दी। करीब दो साल तक तक पहाड़ी और बंजर जमीन पर नहर खोदी गई। इससे गांव में पानी आना प्रारंभ हो गया। इसके बाद यह जानकारी अधिकारियों को मिली तो उन्होंने नहर को पक्का करा दिया। अब इस गांव में पानी की कोई कमी नहीं है। यहां पर 250 आदिवासी परिवार खेती कर गुजारा करते हैं।

वाटर हार्वेस्टिंग से जिंदा की 7 साल से सूखी बोरिंग

वन विभाग द्वारा विकसित किए गए तपोवन में नर्सरी बनाई गई है। यहां नर्सरी के पौधों की सिंचाई के लिए विभाग ने बोरिंग कराई थी, लेकिन सात साल पहले बोरिंग सूख गई। इसके बाद यहां पर कार्य करने वाले सुनील राजावत ने सूखी हुई बोरिंग के आसपास 10 फीट के घेरे में खुदाई कराई। इसके बाद बोरिंग के पाइप में छोटे-छोटे छेद किए और उन्हें जाली से ढक दिया। गड्ढे में गिट्टी, बजरी और कोयला आदि भरकर ऊपर से बंद कर दिया। इसके बाद पहाड़ियों से आने वाले पूरे पानी को वहां पर रोक दिया गया। बारिश में पहाड़ियों से बहकर आने वाला पानी वाटर हार्वेस्टिंग के माध्यम से सूखे बोर में फिल्टर होकर गया। इसके बाद यह बोरिंग जीवित हो गई और वर्तमान मंे इस बोरिंग से 365 दिन करीब एक लाख पौधों की सिंचाई की जाती है।

18वीं शताब्दी के तालों को किया पुनर्जीवित

ग्वालियर दुर्ग पर 18वीं शताब्दी या उससे भी पहले राजा द्वारा यहां ताल-तालाबों का निर्माण कराया है। इसके माध्यम से रहवासी अपनी प्यास भुजाते थे और अन्य कामों में जल का उपयोग करते थे। बारिश का पानी नालियों के जरिए तालों में पहुंचता था। वर्तमान समय में यह तालाब पूरी तरह सूख चुके थे। सिंधिया स्कूल फोर्ट के प्राचार्य डा. माधव देव सारस्वत ने बताया कि स्कूल में विद्यार्थियों को वाटर हार्वेस्टिंग करना सिखाया जा रहा है। परिसर में रानी ताल, धोबी ताल, छमर ताल, छेरी ताल और खंबा ताल के आस-पास नालियों और सूखे तालों को विद्यार्थियों ने साफ किया गया है। अब बारिश के दिनों में इन तालों में पानी इक्ठ्ठा होता है, जिसका उपयोग विद्यालय के पार्कों को हरा-भरा बनाने में किया जाता है।

रानी ताल में स्नान करती थीं रानियां

ताल में चारों तरफ से उतरने के लिए सीढ़ियां हैं। ऊपर कमरे बने हुए हैं, जिन्हें खोला नहीं गया है। साथ ही 50 साल पुरानी पानी की मोटर लगी हुई, जो आज भी काम कर रही है।

धोबी घाट में धुलते थे कपड़े: इस ताल में राजा-महाराजाओं के कपड़े धोबी धोते थे। साथ ही इसका जल अन्य कामों के लिए उपयोग किया जाता था। ताल में लगे पत्थर पर इसके स्थापना की तिथि अंकित है।

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