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उत्तर प्रदेश में NDA को बड़ा नुकसान, ‘साइकिल’ की सवारी से ‘हाथ’ का भी बेड़ा पार

लखनऊ
लोकसभा चुनाव की 543 में से 542 सीटों पर वोटों की गिनती जारी है. अब तक के रूझानों में एनडीए और इंडिया ब्लॉक में कांटे की टक्कर दिख रही है. उत्तर प्रदेश ने इस बार चौंका दिया है. चुनाव आयोग के मुताबिक, दोपहर एक बजे तक उत्तर प्रदेश की 80 में से 40 सीटों पर इंडिया ब्लॉक आगे चल रहा है. वहीं, बीजेपी 33 सीटों पर आगे है.

उत्तर प्रदेश में इस बार बीजेपी के खिलाफ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था. अब तक के रूझानों में समाजवादी पार्टी 33 और कांग्रेस 7 सीटों पर आगे चल रही है.

यूपी में बीजेपी के कई बड़े नेता पीछे चल रहे हैं. अमेठी से स्मृति ईरानी लगभग 60 हजार वोटों से पीछे हैं. उन्नाव से साक्षी महाराज, मुजफ्फरनगर से संजीव बालियान और खेरी सीट से अजय मिश्रा टेनी भी पीछे चल रहे हैं.

अब तक के रूझान देखे जाएं तो इस बार बीजेपी को यूपी में तगड़ा झटका लगता दिख रहा है. पिछली बार एनडीए ने 60 से ज्यादा सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार 40 से भी कम सीटें मिलती दिख रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ये कैसे हुआ?

यूपी के लड़कों का कमाल!

उत्तर प्रदेश में 7 साल बाद समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा. दोनों पार्टियां 2017 में एकसाथ आई थीं, लेकिन तब ये गठबंधन कुछ खास कमाल नहीं कर सका था. 2017 के विधानसभा चुनाव में जब सपा और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा तो 60 सीटें भी नहीं जीत सका था. उस वक्त अखिलेश यादव और राहुल गांधी की जोड़ी को 'यूपी के लड़के' कहा जाने लगा था.

यूपी के ये दो लड़के सात साल बाद 2024 में फिर साथ आए. दोनों के बीच बड़ी मुश्किल से गठबंधन पर बात बनी थी. आखिरकार यूपी के दोनों लड़के बीजेपी के खिलाफ आए और मिलकर चुनाव लड़ा. दोनों का साथ मिलकर चुनाव लड़ना सपा और कांग्रेस, दोनों के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है.

कैसे हुआ कमाल?

2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश की सपा और मायावती की बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था. इस गठबंधन का फायदा बसपा को हुआ था. क्योंकि उसने 10 सीटें जीत ली थी. जबकि, सपा पांच सीटें ही जीत सकी थी. उस चुनाव में कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ा था और एकमात्र रायबरेली सीट ही जीत सकी थी.

लेकिन इस बार सपा और कांग्रेस का गठबंधन यूपी की आधी सीटों पर जीतता नजर आ रहा है. माना जा रहा है कि समाजवादी पार्टी का साथ कांग्रेस के लिए फायदे का सौदा साबित हुआ.

पिछले चुनाव में भी जब सपा-बसपा गठबंधन से मायावती ने 10 सीटें जीती थीं, तब राजनीतिक विश्लेषकों ने बसपा की इस बढ़त के पीछे सपा को ही बड़ा फैक्टर माना था. वो इसलिए क्योंकि अखिलेश यादव अपना वोट सहयोगी पार्टियों को ट्रांसफर कराने में कामयाब रहते हैं.

वो फैक्टर जिन्होंने किया कमाल?

इस चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन की बड़ी जीत के पीछे कई बड़े फैक्टरों ने काम किया. मसलन, अखिलेश ने पीडीए का नारा दिया, जो असरदार साबित हुआ. पीडीए यानी पीड़ित, दलित और अल्पसंख्यक. इस नारे के जरिए उन्होंने पीड़ितो, दलितों और अल्पसंख्यकों के वोटों को एकजुट करने की कोशिश की. जगह-जगह लगे सपा के बैनरों में लिखा था- 'पीडीए ही इंडिया है'.

इसी तरह राहुल गांधी ने भी 'जितनी आबादी, उतना हक' का नारा देकर दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों को साथ लाने में कामयाब रहे.

गठबंधन के बाद जब 'यूपी के दोनों लड़के' आगरा में जब साथ नजर आए थे, तब राहुल गांधी ने कहा था कि पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की आबादी 88 फीसदी है, लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियों के टॉप मैनेजमेंट में ये लोग नहीं दिखेंगे. ये लोग मनरेगा और कॉन्ट्रैक्ट लेबर की लिस्ट में मिलेंगे, हमें यही बदलना है और यही सामाजिक न्याय का मतलब है.

इसके अलावा राहुल गांधी ने इंडिया ब्लॉक की सरकार बनने पर एमएसपी की लीगल गारंटी का वादा भी किया था. एमएसपी की गारंटी को लेकर किसानों ने लंबे समय तक आंदोलन किया था. माना जा रहा है कि कांग्रेस का ये वादा भी फायदेमंद रहा.

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