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श्रद्धांजलि: शहर के भरेपन का एहसास थे कुलदीप !

डा.सत्येंद्र शर्मा 
फेसबुक पलट कर देख रहा था । इसी 09 नवम्बर को उन्होंने अपने ह्रदय विकार की समस्या के कारण बेंगुलुरु के अस्पताल में इलाज कराने की सूचना दी थी तथा मित्रों और शुभचिंतकों से चिंता न करने के लिए आग्रह भी किया था । उनके अनेक चाहने वालों के साथ मैंने भी तत्काल शुभकामनाएँ प्रेषित कर ईश्वर से उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की थी । मेरा ऐसा करना औपचारिकता से अधिक वह डर था जो मृत्यु को लेकर इधर मेरे मन में समाता जा रहा है । मृत्यु से निर्भय होने का डर । आदमी जब किसी चीज से अधिक भयग्रस्त होता है तो कभी-कभी जोर-जोर से बोलने लगता है । कुलदीप जी की इस सूचना को पाकर जैसे मै आशंकित हो गया था । आज उनके न रहने की खबर पाकर पूरी चेतना को क्षण भर के लिए पाला सा मार गया – निश्चेष्ट और निरुपाय …
कुलदीप यानि धमक भरी आवाज़ के मालिक , कुलदीप यानि एक बौद्धिक उपस्थिति , कुलदीप यानि सजग , सक्रिय और चेतना सम्पन्न नागरिकता-बोध , कुलदीप यानि एक सांस्कृतिक उपस्थिति , कुलदीप यानि एक शालीन – सलीके भरा चेहरा , साफ-सुथरा दो-टूक नजरिया रखने वाला व्यक्ति , कुलदीप यानि इसी शहर से पहचान पाकर उलटकर इसी शहर को पहचान देने वाला एक नामवर शख़्स । क्या-क्या थे कुलदीप ! मैंने बहुत दिनों बाद जाना और मेरी तरह जाने कितने होंगे जो सिर्फ उनकी बेहतरीन आवाज़ के प्रशंसक थे , बगैर यह जाने कि वे जितनी आकर्षक आवाज़ के धनी थे उतने ही प्रखर विचारों के भी ।
मैं उस शाम अपने आवास में अकेले उनके साथ बैठा घंटों बतियाते हुये आश्चर्यचकित था कि उनके पास एक गहरी , बारीक राजनीतिक समझ है । उनके पिता जो स्वयं राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आंदोलन के एक योद्धा और परम गान्धी वादी थे , कैसे अपने सार्वजनिक जीवन में उच्च मूल्यों की मिसाल बनकर गए । वे बेटे के लिए बटुए की सौगात तो नहीं दे गए किन्तु राष्ट्रीयता का जो मंत्र पढ़ाकर गए उस मंत्र की चेतना को वे अंतिम समय तक जीते रहे । उनके फेसबुक से ही पता चलता है कि अपने इलाज़ के दौरान वे जहाँ एक तरफ शहर के एक आत्मीय के दिवंगत पुत्र पर शोकांजलि दे रहे हैं वहीं दूसरी ओर धनतेरस और दीपावली पर लोगों को शुभकामनाएँ भी व्यक्त कर रहे थे । गौर कीजिये , इन धार्मिक पर्वों पर दी गयी शुभकामनाओं में भी राष्ट्रवाद का आह्वान और “ सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा “ के राष्ट्राभिमान का गौरवबोध है ।
मैंने यह भी बहुत देर से जाना कि वे केन्द्रीय स्तर , अविभाजित मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के कुछ बड़े नेताओं के गहरे परिचय क्षेत्र में रह चुके थे । वे इन कथित बड़े नेताओं के अन्तर-बाह्य स्वरूप को निकटता से देख चुके थे । वे उनके ऐसे क्षणों के भी साक्षी रह चुके थे जिनका असली रूप जनता के सामने कभी नहीं आता । उन्होने बहुत तनाव और गहरी वेदना के साथ राजनीतिज्ञों के ऐसे हैरतअंगेज दृष्टांत बताए थे । मैं सुनकर दंग था कि वह आदमी सामने के दृश्य ही नहीं , उन दृश्यों के पीछे की काली कथाओं को भी जानता था और उन काली कथाओं के साये से मुक्त कराने की एक छटपटाहट भी उनमें मौजूद थी । उन्होने कहा था “ सत्येन्द्र जी ! सत्ता अपने साथ सुरा , सुंदरी और सोने की चरित्रहीनता लाती है । आज इने गिने लोग ही हैं जो राजनीति में रहते हुये भी इनके शिकार नहीं हैं । इसलिए ऐसे आचरणहीन राजनेताओं से राष्ट्र निर्माण की उम्मीद बेकार है । “
पिछले चुनाव में वे एक नए उगे राजनीतिक दल के लगभग आधारभूत लोगों की निर्णायक भूमिका में थे किन्तु उन्होने देखा कि ऐन वक्त पर वह राजनीतिक दल भी चंद दलालों का चकलाघर बन गया है तो वे उस देहरी को भी प्रणाम कर चल आए और स्वयं नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नाम से एक नयी पार्टी की स्थापना कर ली । इसी सिलसिले में वे गत एक वर्ष से बराबर कभी मेरे आवास में बैठकर और कभी फोन पर देर तक संवाद करते रहते । वे महिलाओं विशेषकर कन्याओं के साथ हो रहे दुष्कृत्यों और कानून व्यवस्था की लाचारगी और इस मामले में सरकार के रवैये से विचलित हो जाते थे । वे आरक्षण के मुखर विरोधी थे और बाबा साहब के ही कथनों के प्रमाण देकर इसके पक्षधरों के तर्कों को तार-तार कर देते थे । वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रवादी थे ।
काया से किंचित छोटे किन्तु व्यक्तित्व और विचारों में कद्दावर कुलदीप सक्सेना जब भी सामने पड़ते , खिले हुये ताज़ा गुलाब की रोशनी और रंगत का एहसास कराते हुये । एक वाकया , आत्मविश्वास से लबरेज और सामने वाले को अपनी आकर्षक आवाज़ और छलकी पड़ती आत्मीयता से भाव-विभोर करते हुये कुलदीप अपने विशेष अंदाज़ में स्टेशन में अपने किसी मित्र को आवाज़ लगा रहे थे । तत्काल बाद , वहाँ उपस्थित मेरी दोनों बेटियों ने उनका अभिवादन किया तो वे जैसे कृतज्ञता और प्रेमिल भाव से भरकर उनके पास चले आए और कुशल-क्षेम की बातें करते रहे । जब-तब वह प्रसंग मेरी बेटियाँ मुझे सुनाया करती हैं । किसी भी परिचित के साथ उनके मिलने की यह स्वाभाविक रीति थी ।
कल हम सब शाम के भोजन पर बैठे थे । सभी के चेहरे पर एक चुप्पी छाई हुयी थी । कुछ देर पहले ही हम लोगों को कुलदीप जी के विछोह की खबर मिली थी । छोटी बेटी ने चुप्पी तोड़ी – “ शहर अब सूना होता जा रहा है । “ बड़ी बेटी की नज़रें चुरा कर मैंने पत्नी की ओर देखना चाहा तो देखा उन दोनों की नज़रें मुझे देख रही थीं । वे तीनों जैसे शहर के अचानक उभरे इस सूनेपन को मेरी आँखों में बाँच लेना चाहती थीं । वाकई कुलदीप शहर की हर महत्वपूर्ण महफिल में अपनी वैचारिक उपस्थिति से जिस भराव का एकसास जगाते थे , मेरे जैसे आपके तमाम प्रेमियों की आँखों में वह सूनापन बहुत भारी पड़ेगा । (साभार)
                                                                          मेरे सहस्त्रों प्रणाम … कुलदीप जी

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