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….दीपों के ‘उजास’ में हमें ‘प्रतिबंधों’ के साथ जीना सीखना होगा

विशेष संपादकीय

कोरोना के भयावह काल के बीच दीपोत्सव का पर्व हम सब भारतवासियों के सामने है। भगवान श्रीराम की अयोध्या इस दिवाली 5 लाख 11 हजार दियों की जगमगाहट से विश्व रिकॉर्ड बनाने का इतिहास रच रही है वहीं विश्वव्यापी ‘वायरस’ की दहशत की जंजीरों से निकलने के लिए हम पिछले 8 महीनों से छटपटा रहे हैं। लाकडाउन का समय तो जैसे खुली जेल में जिंदगी बिताने जैसी सजा देकर गया है। भारत के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि पूरा का पूरा देश खुले आसमान के नीचे भी ‘कैद’ हो गया हो। भारतवासियों ने ही नहीं अपितु समूचे विश्व के लोगों ने यह ‘पीड़ा’ बर्दाश्त की है। अब जब थोड़ा ‘खुलापन’ नजर आने लगा है, तो हम ‘बेपरवाह’ भी होने लगे हैं। इसी बेपरवाही के बीच भगवान राम की अयोध्या वापसी का पर्व ‘दीपोत्सव’ भी हमारे सामने है। उल्लास एवं उमंग चारों तरफ फैली हुई है। ‘उल्लास’ की चकाचौंध जैसे सावधानी की सारी वर्जनाएं तोड़ने को आतुर है। पहले शक्ति की आराधना का पर्व फिर रावण का संहार और अब अमावस की काली रात को ‘उजियारे’ में बदलने का दीप पर्व हम सबके जीवन को अपनी बाहों में समेटने के लिए आतुर है। हमें भी पूरे ‘समर्पण’ के साथ इस आतुरता को स्वीकार करना चाहिए परंतु साथ ही सजग भी रहना होगा कि कोरोना ने अभी हमें ‘ना’ नहीं कहा है, वह तो इस प्रतीक्षा में है कि कब सावधानी हटे और वह किसी ‘दानव’ की तरह मानव जीवन को अपना ग्रास बनाये। हम सब पूरे उत्साह के साथ दीपों को जगमगा कर काली अंधियारी रात को उजास से भर दें, जीवन को ‘उल्लास’ से परिपूर्ण कर लें पर सावधान रहते हुए। पटाखों के कानफोड़ू धमाके कुछ देर के लिए तो अच्छे लगते हैं पर यदि ये धमाके ‘अनहोनी’ में परिवर्तित हो गये तो दमघोंटू प्रदूषण और विनाश के सिवा कुछ नहीं देते।

दीपोत्सव पर्व नई शुरूआत का, आगे बढ़ने का, जीवन में जड़ जमाए बैठी नकारात्मक वृत्तियों को पीछे छोड़कर भरपूर ताजगी के साथ काम पर जुट जाने का संदेश देती है। यह त्यौहार एक नए मौसम का अहसास भी अपने साथ लाता है यानी बंधा-बंधाया रुटीन बदलना इसके मिजाज का हिस्सा है। कारोबारी इस दिन बहीखाते बदलते हैं। जिस भी चीज से आपकी रोजी-रोटी निकलती हो, चाहे वे लिखने-पढ़ने के उपकरण हों या खेती से जुड़े साजो-सामान या फिर पालतू जानवर, इन सबको सजाने-संवारने, सम्मान देने और पूजने की रस्म भी इस त्यौहार के साथ जुड़ी है। अफसोस कि समय बीतने के साथ उत्सवों की मूल धारणा पीछे छूट गई जबकि उनसे जुड़ी ऊपरी चीजें सबके सिर पर सवार हो गईं। पहले त्योहार सामूहिकता को बढ़ावा देते थे। आज इसकी कोई जरूरत ही नहीं रह गई है। त्योहारों को भी हमने ‘रेडिमेड’ बनाकर इन्हें बाजार के भरोसे छोड़ दिया है। इन्हें मनाने के लिए जो भी चीजें हमें चाहिए, उन सबको चकाचक रूप में बाजार हमें उपलब्ध करा दे रहा है। आज की भागदौड़ की जिंदगी में इससे थोड़ी सुविधा जरूर हो गई है लेकिन इसका असर यह हुआ कि त्योहार में बराबरी से ज्यादा गैर बराबरी, सुकून से ज्यादा ‘बेचैनी’ नजर आने लगी है।

इस पर्व के बाजार केंद्रित होने का पहला असर यह है कि जिसकी जेब ज्यादा भारी है उसकी दिवाली ज्यादा रोशन और जगमग है लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए प्रकाश पर्व फीका ही रह जाता है। एक होड़ सी मच जाती है कि कौन कितने पटाखे फोड़ रहा है, किसने कितनी महंगी लड़ियां और कंदीलें लगा रखी हैं। पटाखे फोड़ने की ‘सनक’ ने वायु और ध्वनि प्रदूषण का इतना बड़ा खतरा पैदा किया जिसने देश के सभी नगरों को गैस चेंबर में बदल दिया है।
पचास साल पहले तक लोगों की कल्पना में भी यह बात नहीं आती होगी कि बिजली के बल्ब दिवाली की रात में मिट्टी के दीयों की जगह ले लेंगे। उसी तरह अब हमें पटाखों के बगैर दिवाली मनाने के बारे में सोचना चाहिए। सच कहें तो इस त्योहार के स्वरूप को ही बदलने की जरूरत है। दिवाली ऐसी हो जिसमें बाजार लोगों के सिर पर सवारी गांठता न दिखे। लोग कम खर्चे में मिल-जुलकर इसे मना सकें ताकि पर्यावरण बचा रहे और किसी के मन में ‘कटुता’ और ‘हीनता’ न पैदा हो। …तो आइये नये उल्लास,उमंग के साथ ही सावधानी के साथ दीपोत्सव पर्व को मिलकर मनायें, बस इस बात को जरूर ध्यान रखें कि “सावधानी हटी, दुर्घटना घटी!”

आप सब को www.bhaskarhindinews.com एवं हमारी ओर से ‘दीप पर्व’ की अनंत शुभकामनाएं।

ऋषि पंडित

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