विशेष संपादकीय
चौतरफा मंहगाई की मार झेल रहे देशवासियों के लिए दीपावली अब “उत्सव” नहीं, मनाने की सिर्फ औपचारिकता रह गयी है । जी हाँ सवाल थोड़ा कड़वा लग सकता है, पर इसका उतर बीते कई वर्षों के बाद भी अनुत्तरित है। चुनावी मंचों पर बड़े-बड़े बोल बोलने वाली राजनीतिक पार्टियां और उनके ‘आका’ न तो इस पर अंकुश लगा पा रहे हैं और ना ही इस सुरसा जैसे समस्या का समाधान खोज पा रहे हैं । ‘जुमलों’ की चक्की के दो पाटों के बीच पिसता आम आदमी सिर्फ ‘हाय’ भर कर रह जाता है। देश के मध्यम वर्ग के लोगों को महंगाई ने अधमरा कर दिया है। सवाल यह है कि तीर्थ स्थानों में दीये जला कर रिकॉर्ड बनाने के लिए आतुर सरकारों को आखिर आम आदमी क्यों दिखाई नहीं दे रहा..?, या फिर सरकार के नुमाइंदों की नज़र में आम आदमी के खून-पसीने की कमाई से तीर्थ स्थानों पर कराई जा रही चकाचौंध में ही सारी समस्या का समाधान नजर आ रहा है…!
भगवान राम की अयोध्या वापसी का पर्व ‘दीपोत्सव’ हमारे सामने है। उल्लास एवं उमंग चारों तरफ फैली हुई है। ‘उल्लास’ की चकाचौंध जैसे सावधानी की सारी वर्जनाएं तोड़ने को आतुर है। पहले शक्ति की आराधना का पर्व फिर रावण का संहार और अब अमावस की काली रात को ‘उजियारे’ में बदलने का दीप पर्व हम सबके जीवन को अपनी बाहों में समेटने के लिए आतुर है। दीपोत्सव पर्व नई शुरूआत का, आगे बढ़ने का, जीवन में जड़ जमाए बैठी नकारात्मक वृत्तियों को पीछे छोड़कर भरपूर ताजगी के साथ काम पर जुट जाने का संदेश देती है। यह त्यौहार एक नए मौसम का अहसास भी अपने साथ लाता है यानी बंधा-बंधाया रुटीन बदलना इसके मिजाज का हिस्सा है।
कारोबारी इस दिन बहीखाते बदलते हैं। जिस भी चीज से आपकी रोजी-रोटी निकलती हो, चाहे वे लिखने-पढ़ने के उपकरण हों या खेती से जुड़े साजो-सामान या फिर पालतू जानवर, इन सबको सजाने-संवारने, सम्मान देने और पूजने की रस्म भी इस त्यौहार के साथ जुड़ी है। अफसोस कि समय बीतने के साथ उत्सवों की मूल धारणा पीछे छूट गई जबकि उनसे जुड़ी ऊपरी चीजें सबके सिर पर सवार हो गईं। पहले त्योहार सामूहिकता को बढ़ावा देते थे। आज इसकी कोई जरूरत ही नहीं रह गई है। त्योहारों को भी ‘रेडिमेड’ बनाकर इन्हें बाजार के भरोसे छोड़ दिया है। इन्हें मनाने के लिए जो भी चीजें हमें चाहिए, उन सबको चकाचक रूप में बाजार हमें उपलब्ध करा दे रहा है। आज की भागदौड़ की जिंदगी में इससे थोड़ी सुविधा जरूर हो गई है लेकिन इसका असर यह हुआ कि त्योहार में बराबरी से ज्यादा गैर बराबरी, सुकून से ज्यादा ‘बेचैनी’ नजर आने लगी है। इस बेचैनी को मंहगाई की मार और हवा दे रही है ।
इस पर्व के बाजार केंद्रित होने का पहला असर यह है कि जिसकी जेब ज्यादा भारी है उसकी दिवाली ज्यादा रोशन और जगमग है लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए प्रकाश पर्व फीका ही रह जाता है। सच कहें तो इस त्योहार के स्वरूप को ही बदलने की जरूरत है। दिवाली ऐसी हो जिसमें बाजार लोगों के सिर पर सवारी गांठता न दिखे।
आइये.. हम सब पूरे उत्साह के साथ दीपों को जगमगा कर काली अंधियारी रात को उजास से भर दें, जीवन को ‘उल्लास’ से परिपूर्ण कर लें पर सावधान रहते हुए। पटाखों के कानफोड़ू धमाके कुछ देर के लिए तो अच्छे लगते हैं पर यदि ये धमाके ‘अनहोनी’ में परिवर्तित हो गये तो दमघोंटू प्रदूषण और विनाश के सिवा कुछ नहीं देते। मंहगाई बढ़ाना तो सरकार के हाथों में है परंतु पटाखों, चाइनीज़ टिमटिमाती लाइटों पर बेकार में पैसा फूंकने से बचकर आप कुछ फिजूल खर्ची तो रोक ही सकते हैं ।
यह दीप पर्व आप सभी देशवासियों को उदार मन, अच्छा स्वास्थ्य एवं भरपूर सुख-समृद्धि प्रदान करे इसी प्रार्थना के साथ “भास्कर हिंदी न्यूज़ “परिवार की तरफ से दीपोत्सव की अनंत, आत्मिक शुभकामनाएँ।