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कम खर्च में त्योहार मनाने की परंपरा शुरू करने की जरूरत, ताकि गरीब भी मुस्कुरा सकें

विशेष संपादकीय

जी हां, एक बार फिर दीप पर्व हमारी ‘देहरी’ पर हैं अमावस की उस ‘स्याह रात’ का अंधेरा दूर भगाने के लिए जिससे हर कोई अपने जीवन से दूर रखना चाहता है, फिर चाहे वह अमीर हो गया गरीब। देश में इस अमीर-गरीब की खाई ने त्योहार मनाने के मायने ही बदल दिये है। जिनके पास भरपूर पैसा है वह अपने तरीके से त्योहारों पर दिल खोलकर खर्च करता है पर गरीब संपन्न लोगों की दीवाली देख कर सिर्फ आह भर कर रह जाता है। गरीब की गरीबी और उसकी आर्थिक स्थिति कमोवेश हर त्योहारों पर उसे मुंह चिढ़ाती नजर आती है। यह भी कड़वा सच है कि हमारे देश में चाहे जितने भी जतन सरकार कर ले या सामाजिक संगठन, अमीर-गरीब की खाई नहीं पाट सकते। परंतु यदि सब प्रयास करें तो त्योहारों पर गरीबों के चेहरे पर कम से कम मुस्कान तो ला ही सकते हैं उसकी थोड़ी-थोड़ी सहायता करके तथा अपनी दिखावटी दीवाली को कम से कम खर्च में मना कर। किसी भी त्योहार पर सक्षम व्यक्ति यह संकल्प तो ले सकता है कि त्योहारों पर वह कुछ गरीबों की मदद जरूर करेगा। इस कोशिश व संकल्प से कम से कम गरीब की कोठरी में भी दीपक का ‘उजास’ फैलाया जा सकता है।

दीपावली नई शुरूआत का, आगे बढ़ने का, जीवन में जड़ जमाये बैठी नकारात्मक वृत्तियों को पीछे छोड़कर भरपूर ताजगी के साथ काम पर जुट जाने का संदेश देती है। यह त्योहार एक नए मौसम का अहसास भी अपने साथ लाता है यानी बंधा-बंधाया रुटीन बदलना इसके मिजाज का हिस्सा है। कारोबारी इस दिन बही-खाते बदलते हैं। जिस भी चीज से आपकी रोजी-रोटी निकलती हो, चाहे वे लिखने-पढ़ने के उपकरण हों या खेती से जुड़े साजो-सामान या फिर पालतू जानवर, इन सबको सजाने-संवारने, सम्मान देने और पूजने की रस्म भी इस त्यौहार के साथ जुड़ी है। पर अफसोस कि समय बीतने के साथ उत्सवों की मूल धारणा पीछे छूट गई जबकि उनसे जुड़ी ऊपरी चीजें सब के सिर पर सवार हो गईं। पहले त्योहार सामूहिकता को बढ़ावा देते थे। आज इसकी कोई जरूरत ही नहीं रह गई है। त्योहारों को भी हमने रेडिमेड बनाकर बाजार के भरोसे छोड़ दिया है। इन्हें मनाने के लिए जो भी चीजें हमें चाहिए, उन सबको चकाचक रूप में बाजार हमें उपलब्ध करा  रहा है। आज की भागदौड़ की जिंदगी में इससे थोड़ी सुविधा जरूर हो गई है लेकिन इसका असर यह हुआ कि त्योहार में बराबरी से ज्यादा गैर बराबरी, सुकून से ज्यादा ‘बेचैनी’ नजर आने लगी है।

दिवाली के बाजार केंद्रित होने का पहला असर यह है कि जिसकी जेब ज्यादा भारी है उसकी दिवाली ज्यादा रोशन और जगमग है लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए प्रकाश पर्व फीका ही रह जाता है। एक होड़ सी मच जाती है कि कौन कितने पटाखे फोड़ रहा है, किसने कितनी महंगी लड़ियां और कंदीलें लगा रखी हैं। पटाखे फोड़ने की सनक ने वायु और ध्वनि प्रदूषण का इतना बड़ा खतरा पैदा किया कि मजबूर होकर सुप्रीम कोर्ट को इनकी बिक्री पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। सच्चाई यह है कि त्योहार मनाने के तरीके समय के साथ बदलते रहे हैं। पचास साल पहले तक लोगों की कल्पना में भी यह बात नहीं आती होगी कि बिजली के बल्ब दिवाली की रात में मिट्टी के दीयों की जगह ले लेंगे। उसी तरह अब हमें पटाखों के बगैर दिवाली मनाने के बारे में सोचना चाहिए। सच कहें तो इस त्योहार के स्वरूप को ही बदलने की जरूरत है। दिवाली ऐसी हो जिसमें बाजार लोगों के सिर पर सवारी गांठता न दिखे। लोग कम खर्चे में मिल-जुलकर इसे मना सकें ताकि पर्यावरण बचा रहे और किसी के मन में कटुता और हीनता न पैदा हो। सरकार और सामाजिक संगठनों को इस दिशा में कुछ करना चाहिए। आइये, इस दीप पर्व पर कुछ ऐसे ही सकारात्मक संकल्प को अपने जीवन में उतारने का प्रयास शुरू करें जिससे प्रतिद्वंदिता के स्थान पर सभी के चेहरों पर त्योहारों की खुशी समान रूप से नजर आये और सभी के घरों संतुष्टि का उजास चारों तरफ फैला रहे।

आपके जीवन में सुख-समृद्धि दीये के प्रकाश की तरह हमेशा जगमगाते रहें इसी शुभेच्छा के साथ आप सभी को दीपोत्सव पर्व की अनंत, आत्मिक शुभकामनायें।

   ऋषि पंडित
(प्रधान संपादक)

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