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Eid Al Adha: बकरीद पर शैतान को पत्थर मारने की परंपरा भी शामिल है, इन नियमों से होती है कुर्बानी

Eid Al Adha 2021: आज यानी 21 जुलाई 2021 दिन बुधवार को पूरे देश भर में इस्लाम धर्म कुर्बानी का पर्व ईद-उल-अजहा मना रहा है। ये त्योहार मुस्लिम संप्रदाय का दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है, जो ईद-उल-फितर यानी मीठी ईद के ठीक 70 दिन बकरीद यानी ईद-उल-अजहा के रूप में मनाया जाता है। इस खास दिन सुबह अल्लाह की इबादत के बाद कुर्बानी का सिलसिला जारी होता है, जो प्राचीन समय से चला आ रहा है। जानवर के गोश्त को गरीब तबके के लोगों में बांटा जाता है। हालाकि यह बात तो आमतौर पर सभी जानते हैं। लेकिन इस पर्व को लेकर एक खास परंपरा यह है भी है कि कुर्बानी के बाद शैतान को पत्थर मारा जाता है। इस परंपरा के बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं। चलिए इसके बारे में विस्तार से जानते हैं।

यहां से शुरू हुई शैतान को पत्थर मारने की परंपरा

इस्लाम धर्म में बकरीद पर्व पर कुर्बानी के बाद शैतान को पत्थर मारने की परंपरा के बारे अब तक आपने भी नहीं सुना होगा। दरअसल हज यात्रा के आखिरी दिन कुर्बानी देने के बाद रमीजमारात पहुंचकर शैतान को पत्थर मारने की भी एक अनोखी परंपरा होती है। यह खास परंपरा हजरत इब्राहिम से जुड़ी हुई है। जिसकी जानकारी अन्य धर्म के लोगों को न के बराबर होती हैं। इस परंपरा को लेकर ऐसा माना जाता है कि जब हजरत इब्राहिम अल्लाह को अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए चले थे तो रास्ते में उनका संपर्क शैतान से हुआ था। इस दौरान शैतान ने उन्हें बहकाने की कोशिश की थी। यही वजह सहै कि हजयात्री शैतान के प्रतीक उन तीन खंभों पर पत्थर की कंकड़ियां मारते हैं।

यहां से शुरू हुई कुर्बानी की परंपरा

ईद-उल-अजहा पर्व के दौरान जानवर की कुर्बानी देने की परंपरा भी प्राचीन समय से ही चली आ रही है। हालाकि इस परंपरा के बारे में अन्य धर्म के लोगों को भी पता होता है। लेकिन इसका मूल कारण क्या है? जिस वजह से कुर्बानी की परंपरा को आगे बढ़ाया गया? दरअसल बकरीद हजरत इब्राहिम की कुर्बानी की याद में मनाया जाने वाला पर्व है। इस दिन इस्लाम धर्म के लोग गाय, बकरी या ऊंट जैसे किसी जानवर की कुर्बानी देते हैं। इस्लाम धर्म में सिर्फ हलाल के तरीके से कमाए हुए पैसों से ही कुर्बानी जायज मानी जाती है। मुस्लिम परिवार के लोग कुर्बानी का गोश्त अकेले अपने परिवार के लिए नहीं रख सकता। इस गोश्त के तीन हिस्से किए जाते हैं, जिसमें से पहला हिस्सा गरीबों को, दूसरा हिस्सा दोस्त और रिश्तेदारों को और तीसरा हिस्सा अपने घर के लिए होता है।

बकरीद यानी ईद-उल-अजहा का पर्व प्राचीन समय से ही मनाते हुए चला आ रहा है। इस पर्व को मनाने को लेकर ऐसा माना जाता है कि एक बार अल्लाह ने हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेनी चाही। उन्होनें हजरत इब्राहिम को हुक्म दिया कि वह अपनी सबसे प्यारी चीज को उन्हें कुर्बान कर दें। हजरत इब्राहिम को उनके बेटे हजरत ईस्माइल सबसे ज्यादा प्यारे थे। अल्लाह के हुक्म के बाद हजरत इब्राहिम ने ये बात अपने बेटे हजरत इस्माइल को बताई। हजरत इब्राहिम को उस समय 80 साल की उम्र में पुत्र की प्राप्ति हुई थी। जिस वजह से उनके लिए अपने बेटे की कुर्बानी देना बहुत मुश्किल था। लेकिन बेटे की मुहब्बत की कुर्बानी कर उन्होंने अल्लाह के हुक्म को माना और अपने बेटे की कुर्बानी देने का फैसला किया।

हजरत इब्राहिम ने अल्लाह का नाम लेते हुए अपने बेटे के गले पर छुरी चला दी। लेकिन जब उन्होनें अपनी आंख खोली तो देखा कि उनका बेटा बगल में जिंदा खड़ा है और उसकी जगह बकरे जैसी शक्ल का जानवर कटा हुआ है, जिसके बाद अल्लाह की राह में कुर्बानी देने की शुरूआत हो गई।

कुर्बानी के समय इन बातों को रखा जाता है ध्यान में

इस्लाम धर्म में बकरीद के समय जानवर की कुर्बानी देना ही परंपरा नहीं होती बल्कि इसके पीछे कुछ नियम होते हैं जिसे पूरा करते हुए कुर्बानी को अंजाम दिया जाता है। कुर्बानी के लिए जानवरों को चुनते समय उसके अलग-अलग हिस्से होते हैं। जैसे बड़े जानवर भैंस पर सात हिस्से होते हैं तो वहीं बकरे जैसे छोटे जानवरों के एक ही हिस्से होते हैं। इसका मतलब है कि अगर कोई शख्स भैंस या ऊंट की कुर्बानी देता है तो उसमें सात लोगों को शामिल किया जा सकता है। वहीं बकरे की कुर्बानी में वो सिर्फ एक शख्स के नाम पर होता है। अगर किसी जानवर को कोई बीमारी है तो ऐसे जानवरों की कुर्बानी के लिए अल्लाह राजी नहीं होते हैं।

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