“विशेष संपादकीय”
रंगो का महापर्व होली महोत्सव हम सभी को ‘अनेकता’ से ‘एकता’ के रंग में रंगने के लिए एक बार पुनः हमारी देहरी पर है। यह इसी त्योहार की खासियत है कि बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब की तमाम दीवारें कुछ देर के लिए ढह जाती हैं। कपड़ों और चेहरों पर तरह-तरह के रंग पोते सड़कों पर निकले लोगों में कौन किस दफ्तर में किस कुर्सी पर बैठा करता है, न तो इसका हिसाब लगाना संभव होता है, न ही कोई इसकी चिंता करता है। मगर, इन सारी हरकतों का मकसद समूह में रहते हुए अधिक से अधिक आजादी और आनंद का अनुभव करना ही होता है।
फागुन की तो हवा ही सारी वर्जनाएं खत्म करने का संदेश लिए हुए आती है। होली की मस्ती बोल-चाल से लेकर रिश्ते-नातों तक हर क्षेत्र में मर्यादा की सीमाओं पर कुछ समय के लिए धुंध की चादर डाल देती है, लेकिन इससे मर्यादाएं खत्म नहीं होतीं। साल के बाकी दिनों के लिए वे और भी चमकीली, और भी स्निग्ध हो जाती हैं। गालियों पर साल भर भले हम नाक-भौं सिकोड़ते रहें, होली के मौके पर सबको ये प्यारी ही लगती हैं। जो शब्द साल के बाकी दिनों में किसी को लंपट, नालायक और छिछोरा बना सकते हैं, होली के माहौल में वे स्वस्थ मनोरंजन का जरिया बने दिखते हैं।
हमें अच्छा मनुष्य और हमारे समाज को अच्छा समाज बनाए रखने के लिए जो वर्जनाएं जरूरी मानी गई हैं, उनके पार जाने का रोमांच महसूस कर लेने के बाद उन सीमाओं के इस तरफ वापस लौट आने का दम भी हमारे भीतर होना चाहिए। यह तभी होगा जब वर्जनाएं पार करते हुए भी हम एक-दूसरे के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव बनाए रखें, लेकिन दुर्भाग्यवश इसी मोर्चे पर हमसे लगातार चूक हो रही है। गिरावट का स्तर इतना घिनौना हो चुका है कि आये दिन ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जिनके बारे में सुनकर मानवता शर्मसार होती रहती है. चंद दिनों की पीड़ा जताने के पश्चात हम लोग ऎसे घटनाओं को भूलने के आदी हो चुके हैं। हमें जानवर से भी कई दर्जा नीचे का कोई प्राणी साबित करने वाली ये घटनाएं भला किस सामूहिकता, किस आजादी की ओर इशारा करती हैं? अच्छा होगा कि यह होली हम कुछ ऐसी धज में मनाएं, जिसे याद करके अगले दिन हमारे इर्द-गिर्द मुस्कुराहट फैली रहे, कोई पछतावा, कोई कसैलापन दूर-दूर तक न दिखे। तभी रंगों के इस महापर्व की परंपरा सार्थक होगी।