कोरोना के लंबे संक्रमण काल की एकरसता को पिछले दिनों चुनावों की गहमागहमी ने भंग किया और खूब किया। बिहार से लेकर अमरीका तक के चुनावों ने पूरे देश के लिए भरपूर मनोरंजन का अवसर दिया। ये चुनाव विश्व के दो सबसे परिवर्धित लोकतंत्रों में लड़े गए और जनता ने भी खुलकर इस व्यवस्था की सार्थकता और महत्व को रेखांकित भी किया। यह लोकतंत्र की ही खूबसूरती है कि कोई भी यहाँ सारभौमिक और सर्वशक्तिमान होने का भ्रम नहीं पाल सकता। आज जो सत्ता की ड्राइविंग सीट पर बैठा है हो सकता है कि कल उसे गाड़ी में ही जगह तक न मिले। यह व्यवस्था जनता के हाथों में किसी भी नेतृत्व को नकारने का एक ऐसा घातक हथियार देती है जो हर राजनेता को रात-दिन काम करने और करते रहने को मजबूर करता है। यहाँ यह बात गौर करने जैसी है कि जहाँ अमरीका में लोकतंत्र अब दो शतक पुराना हो चल है वहीं भारत में इसे महज 8 दशक भी नहीं हुए हैं और उसमें से भी प्रारम्भिक 3 दशक तो आजादी की लड़ाई का स्वयंभू नेतृत्व करने के नाम पर बची-खुची कांग्रेस ने हथिया लिए थे और असल लोकतंत्र इंदिरा गांधी द्वारा लोकतंत्र के कोकून पर 1975 में किए गए प्रहार के बाद उदय में आया और फिर ऐसा छाया कि अच्छे अच्छों को घर बैठा दिया।
यदि आप ध्यान से देखें तो इस देश के लोकतंत्र ने बंगाल और केरल में वामपंथियों से लेकर उड़ीसा में पटनायकों और गुजरात में भाजपा को अलग-अलग कारणों से ही सही लंबी पारियाँ खेलने की छूट दी है तो वहीं जिस किसी के सर सत्ता का घमंड चढ़ा उसे ऐसा धूल में मिलाया है कि समूल नाश कर दिया। अमरीका इस मामले में थोड़ा अलग है कि वहाँ कुल जमा दो मॉडेल ही हैं सो जनता बारी-बारी दोनों को झेलती है। ऐसे में हिलेरी क्लिंटन देश की पहली पसंद होने के बाद भी समय के कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं तो डोनाल्ड ट्रम्प वैश्विक राजनीति के सबसे बड़े विदूषक होकर उभरते हैं। मगर इस चुनाव ने भारत और अमरीका दोनों को एक पेज पर लाकर खड़ा किया और वो यह कि दोनों चुनावों का विमर्श गटर से भी नीचे के स्तर पर चला गया। अपने विपक्षी को नीचा दिखलाने के लिए जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया गया वह साफ जतला रही थी कि आपके पल्ले कहने को कुछ खास नहीं है इसलिए आप अगले के मुँह पर डामर पोत कर खुद गोरे दिखना चाहते हैं। यह राजनीतिक विमर्श का वह दीवालियापन है जहाँ वह विकल्प देने के बजाय विकल्प बनना चाहता है।
भारत के परिपेक्ष्य में भारतीय जनता पार्टी अपने निर्धारित एजेंडे पर कायम और दायम है और उसने कभी इस बात को नकारा भी नहीं है और देश का बहुमत आज उससे सहमत है। इसके चलते चुनाव दर चुनाव उसे आशातीत सफलता मिलती जा रही है और विपक्ष सन्निपात की अवस्था में है। विपक्ष की मुश्किल यह है कि देश में एक मात्र कांग्रेस ही ऐसा दल है जिसका अस्तित्व देशव्यापी है किन्तु उसकी ड्राइविंग सीट खाली है सो गाड़ी बिना किसी लक्ष्य के बस चलती जा रही है और पार्टी के हाथ में आई सत्ता भी उसके हाथ से सरकती जा रही है। अब तो पार्टी से समझदार लोगों का पलायन भी विधिवत आरंभ हो गया है और टॉम वडक्कन, प्रियंका चतुर्वेदी से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक न केवल पार्टी छोड़ चुके हैं बल्कि अच्छा खासा नुकसान भी दे चुके हैं। करेले पर नीम यह चढ़ी है कि छद्म गांधी इसका पिंड नहीं छोड़ रहे हैं तो पार्टी में नेतृत्व का संकट है। क्षेत्रीय क्षत्रप अपने प्रांत में तो लड़ लेते हैं पर राष्ट्रीय स्तर पर उनकी औकात ही नहीं है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के डीएनए में भी अब परिवर्तन आने लगा है और गटर में घुस कर लड़ने के हिसाब से अब उसके प्रवक्ता भी ईंट का जवाब पत्थर बल्कि तोप से देने लगे हैं। हालत इतनी पतली हो चली है कि अपने पक्ष की रक्षा का दबाव न झेल पाने के कारण एक प्रवक्ता तो असमय काल के गाल तक में समय गए हैं।
देश के बुद्धिजीवी इस अवस्था से बहुत खिन्न हैं। क्योंकि इस भाषा में विमर्श उनके वश का है नहीं और हाल ही में एक गला फ़ाडू पत्रकार के साथ महाराष्ट्र सरकार की कुश्ती के बाद तो जैसे विमर्श के इस मॉडेल को संस्वीकृति ही मिल गई है सो अब कम से कम अगले चुनाव तक तो हमें इसी भाषा के साथ जीना पड़ेगा। बेहतर है कि हम दो काम करें – पहला यह कि टीवी का वॉल्यूम कंट्रोल हाथ में रखें और दूसरा कभी-कभार उसका लाल वाला बटन दबाना भी सीख लें !
सीए सिंघई संजय जैन