Rashtriya Swayamsevak Sangh:digi desk/BHN/ विदिशा/ अप्रैल और मई माह में जब कोरोना की दूसरी लहर में इससे मरने वालों की संख्या बढ़ रही थी तब विदिशा शहर में श्मशान में अंतिम संस्कार के लिए जगह कम पड़ गई। वहां काम करने वाले नगर पालिका के कर्मचारी संक्रमित हो गए। श्मशान में अव्यवस्था के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े चार युवक आगे आए। उन्होंने करीब 38 दिन तक रोज नजदीकी गांव में बने श्मशान में न केवल अंतिम संस्कार की व्यवस्था संभाली बल्कि 14 लोगों की अस्थियों का प्रयागराज में विसर्जन किया।
संघ के स्वयंसेवक 35 वर्षीय कुलदीप शर्मा बताते हैं कि मित्र की दादी के अंतिम संस्कार के लिए वे ग्राम करैया हवेली में बनाए गए भोरघाट श्मशान पहुंचे। यहां सिर्फ एक टिन शेड था, जहां चिता जलाई जा सकती थी। खुले में अंतिम संस्कार हो रहा था। यहां चिता बनाने वाला भी कोई नहीं था। एक मृतक की मां-बेटी को चिता पर लकड़ी रखते देख वे सिहर गए।
लौटने के बाद कुलदीप ने साथी स्वयंसेवक संजय प्रजापति, ध्रुव चतुर्वेदी सहित अन्य दोस्तों से बात की। उनसे भोरघट श्मशान पर सेवा करने का आग्रह किया। संजय, ध्रुव और सुरेंद्र तैयार हो गए। 23 अप्रैल से ही वे रोज सुबह श्मशान पहुंच जाते और शाम तक वहां रहते। चिता बनाने से लेकर पंच लकड़ी तक की क्रिया कराते। लोगों में कोरोना का इतना डर था कि सुरक्षा साधनों के बाद भी स्वजन मृतक का दाह संस्कार करने से कतराते थे। 31 मई तक इन स्वयंसेवकों ने 205 कोरोना संक्रमित शवों के दाह संस्कार में मदद की।
सुरक्षा का रखा ध्यान
संजय प्रजापति बताते है कि इस दौरान उनका ठिकाना घर से अलग एक कमरा रहा। बेटी के साथ शाम को भोजन का क्रम भी टूट गया। सुरेंद्र ने भी घरवालों और दोस्तों से दूरी बना ली थी। कुलदीप बताते हैं कि वे जनेऊधारी हैं। नियमानुसार श्मशान से लौटने पर जनेऊ बदलना पड़ता है। रोज यह संभव नहीं था इसलिए इस दौरान न जनेऊ बदला न पूजा की।
ध्रुव चतुर्वेदी बताते हैं कि सबने सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा। सभी चेहरे पर दो-दो मास्क और हाथ में दास्ताने पहने रहते थे। चौदह लोगों का अस्थि संचय करने कोई भी नहीं आया। इन लोगों ने अस्थियों को 14 कलशों में रखा। प्रयागराज पहुंचे और पूरे विधि विधान से पिंडदान कर अस्थियों को गंगा नदी में विसर्जित किया। कुलदीप कहते है कि गंगा में अस्थि विसर्जन के पीछे उनका उद्देश्य मृतकोें को मोक्ष दिलाने के अलावा अंतिम संस्कार की क्रिया में जाने-अनजाने हुई गलतियों का प्रायश्चित करना भी था।