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आज 3 सितंबर को पांढुर्ना में खूनी गोटमार मेला, अब तक 10 की गई जान, जानें पूरी कहानी

छिंदवाड़ा
विश्व प्रसिद्ध गोटमार मेला आज 3 सितंबर को पांढुर्ना में मनेगा। पांढुर्ना व सावरगांव के बीच जाम नदी पर गोटमार खेलने की परंपरा को निभाकर एक-दूसरे पर जमकर पत्थर बरसाए जाएंगे। पोला पर्व के दूसरे दिन होने वाले गोटमार मेले पर भले ही खून की धारा बहेगी, पर दर्द को भूलकर परंपरा निभाने का जोश कम नहीं होगा।
मेले में पहुंचने वाला हर व्यक्ति जाता है मंदिर

मेले की आराध्य मां चंडिका के चरणों में माथा टेककर हर कोई गोटमार मेले में शामिल होगा। गोटमार के अवसर पर आराध्य देवी मां चंडिका के मंदिर में श्रद्धालुओं का मेला लगेगा। गोटमार खेलने वाले खिलाड़ी और मेले में शामिल होने वाला हर व्यक्ति मां चंडिका को नमन करके मेले में पहुंचेगा। गोटमार मेले के समापन पर झंडेरूपी पलाश के पेड़ को खिलाड़ी मां चंडिका के मंदिर में अर्पित करेंगे।
मेले से जुड़ी हैं किवदंतियां

गोटमार मनाने की परंपरा के पीछे किवदंतियां व कहानियां जुड़ी हुई हैं। जिसमें प्रेमीयुगल के प्रसंग और भोंसला राजा के सैनिकों के युद्धभ्यास की कहानी को मेले की शुरूआत से जोड़ा जाता है। एक किवदंती के अनुसार पांढुर्ना के युवक व सावरगांव की युवती प्रेमसंबंध में थे। युवक ने सावरगांव से युवती को पांढुर्ना लाना चाहा। जैसे ही दोनों के जाम नदी के बीच आने की खबर सावरगांव के लोगों को लगी तो उन्होंने प्रेमीयुगल पर पत्थर बरसाए। इसके विरोध में पांढुर्ना के लोगों ने भी पत्थरबाजी की। जिसमें प्रेमी युगल की मौत हो गई।
पलाश तोड़ने के लिए होता है खूनी संघर्ष

प्रेमी युगल के प्रतीक स्वरूप नदीं के बीच पुल के पास एक पलाश का पेड़ गड़ाया जाता है, उस पर झंडी बांधी जाती है। इसी पेड़ की झंडी को तोडऩे के लिए दोनों पक्षों में खूनी गोटमार होता है, जो पक्ष पहले झंडी तोड़ता है जीत उसकी होती है।

राजा से जुड़ी है दूसरी कहानी

वहीं दूसरी कहानी प्रचलित है कि जाम नदी के किनारे पांढुर्ना-सावरगांव वाले क्षेत्र में भोंसला राजा की सेना रहती थी। युद्धाभ्यास के लिए सैनिक नदी के बीचोंबीच एक झंडा लगाकर पत्थरबाजी का मुकाबला करते थे। युद्धाभ्यास लंबे समय तक चलता रहा। जिसके बाद यह गोटमार मेले की परंपरा बन गई।

मेले को रोकने के प्रयास रहे असफल

गोटमार में पत्थर बरसाकर लहुलूहान करने के खेल को रोकने प्रशासन ने प्रयास किए, पर सभी असफल ही रहे। वर्ष 2009 में मानवाधिकार आयोग ने गोटमार में होने वाली पत्थरबाजी पर रोक लगाने की कोशिश की। तत्कालीन कलेक्टर निकुंज श्रीवास्तव व एसपी मनमीतसिंह नारंग ने पुलिस फोर्स तैनात कर पत्थरबाजी बंद कराते हुए मेले के मुख्य झंडे को चंडी माता मंदिर ला दिया, जिससे लोगों में आक्रोश पनप गया। इससे कई जगह तोड़फोड़ की स्थिति बनी। प्रशासन से नाराज लोगों ने खेलस्थल पहुंचकर पत्थरबाजी की।
पत्थर हटाकर बिछाई थीं रबर की गेंद

घायलों की संख्या कम करने का प्रयास करते हुए साल 2001 में रबर गेंद से खेल खेलने का आग्रह किया। खेलस्थल से पत्थर हटाकर रबर गेंद बिछा दी गई। शुरूआत में खिलाड़ियों ने एक-दूसरे पर रबर गेंदे बरसाई, पर दोपहर के बाद मेला अपने शबाब पर आ गया। खिलाड़ियों ने नदी से खोदकर पत्थरों को निकालकर गोटमार खेल खेला। वहीं वर्ष 1978 व 1987 में खेलस्थल से खिलाड़ियों को हटाने के लिए प्रशासन को आंसू गैस और गोली चलानी पड़ी थी।

अब तक 10 से ज्यादा की हो चुकी है मौत

वर्ष 1955 में महादेव सांबारे, 1978 में देवराव सकरडे, 1979 में लक्ष्मण तायवाड़े, 1987 में कोठीराम सांबारे, 1989 में विठ्ठल तायवाड़े, योगीराज चौरे, गोपाल चल्ने व सुधाकर हापसे, 2004 में रवि गायकी, 2005 जनार्दन सांबारे, 2008 में गजानन घुघुसकर और 2011 में देवानंद वधाले ने गोटमार में जान गंवाई है। जिसमें महादेव सांबारे, कोठीराम सांबारे व जनार्दन सांबारे एक ही परिवार के हैं। जाटबा वार्ड की गिरजाबाई घुघुसकर के बेटे गजानन की साल 2008 में गोटमार में मौत हुई। गोटमार आते ही गिरजताबाई के आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

मेले से जुड़ी है किवदंतियां
गोटमार मनाने की परंपरा के पीछे किवदंतियां व कहानियां जुड़ी हुई हैं। जिसमें प्रेमीयुगल के प्रसंग और भोंसला राजा के सैनिकों की युद्धभ्यास की कहानी को मेले की शुरूआत से जोड़ा जाता है। एक किवदंती के अनुसार पांढुर्ना के युवक व सावरगांव की युवती प्रेमसंबंध में थे। युवक ने सावरगांव से युवती को पांढुर्ना लाना चाहा। जैसे ही दोनों के जाम नदी के बीच आने की खबर सावरगांव के लोगों को लगी तो उन्होंने प्रेमीयुगल पर पत्थर बरसाए, विरोध में पांढुर्ना के लोगों ने भी पत्थरबाजी की। जिसमें प्रेमीयुगल की मौत हो गई। वहीं दूसरी कहानी प्रचलित है कि जाम नदी के किनारे पांढुर्ना-सावरगांव वाले क्षेत्र में भोंसला राजा की सेना रहती थी। युद्धाभ्यास के लिए सैनिक नदी के बीचोंबीच एक झंडा लगाकर पत्थरबाजी का मुकाबला करते थे। युद्धाभ्यास लंबे समय तक चलता रहा। जिसके बाद यह गोटमार मेले की परंपरा बन गई।

अब तक 10 से ज्यादा की हुई मौत
 वर्ष 1955 में महादेव सांबारे, 1978 में देवरा
व सकरडे, 1979 में लक्ष्मण तायवाड़े, 1987 में कोठीराम सांबारे, 1989 में विट्ठल तायवाड़े, योगीराज चौरे, गोपाल चन्ने व सुधाकर हापसे, 2004 में रवि गायकी, 2005 जनार्दन सांबारे, 2008 में गजानन घुघुसकर और 2011 में देवानंद वघाले ने गोटमार में जान गंवाई है। जिसमें महादेव सांबारे, कोठीराम सांबारे व जनार्दन सांबारे एक ही परिवार के हैं। जाटबा वार्ड की गिरजाबाई घुघुसकर के बेटे गजानन की साल 2008 में गोटमार में मौत हुई। गोटमार आते ही गिरजताबाई के आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

मेले को रोकने प्रयास रहे असफल

 गोटमार में पत्थर बरसाकर लहुलूहान करने के खेल को रोकने प्रशासन ने प्रयास किए, पर सभी असफल ही रहे। वर्ष 2009 में मानवाधिकार आयोग ने गोटमार में होने वाली पत्थरबाजी पर रोक लगाने की कोशिश की। तत्कालीन कलेक्टर निकुंज श्रीवास्तव व एसपी मनमीतसिंह नारंग ने पुलिस फोर्स तैनात कर पत्थरबाजी बंद कराते हुए मेले के मुख्य झंडे को चंडी माता मंदिर ला दिया। जिससे लोगों में आक्रोश पनप गया, जिससे कई जगह तोडफ़ोड़ की स्थिति बनी। प्रशासन से नाराज लोगों ने खेलस्थल पहुंचकर पत्थरबाजी की। घायलों की संख्या कम करने का प्रयास करते हुए साल 2001 में रबर गेंद से खेल खेलने का आग्रह किया। खेलस्थल से पत्थर हटाकर रबर गेंद बिछा दी गई। शुरूआत में खिलाडिय़ों ने एक-दूसरे पर रबर गेंदे बरसाई, पर दोपहर के बाद मेला अपने शबाब पर आ गया। खिलाडिय़ों ने नदी से खोदकर पत्थरों को निकालकर गोटमार खेल खेला। वहीं वर्ष 1978 व 1987 में खेलस्थल से खिलाडिय़ों को हटाने के लिए प्रशासन को आंसू गैस और गोली चलानी पड़ी थी।

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