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अयोध्या के इस मंदिर में स्त्री वेश धारण कर नृत्य करते हैं पुजारी

अयोध्या
 राज बहादुर शरण
की दिनचर्या शुरू हो जाती है सुबह 5 बजे से और खत्म होती है भगवान के शयन के बाद। अष्टयाम सेवा यानी आठ प्रहरों के शृंगार, भोग, आरती के बीच उन्हें मुश्किल से बाकी काम के लिए वक्त मिलता है। फिर पिछले करीब दो साल से व्यस्तता और बढ़ गई है। मंदिर में मरम्मत हो रही है और जब भी किसी को कुछ समझ नहीं आता, तो वह समाधान के लिए सीधे राज बहादुर के पास पहुंच जाता है। लेकिन, महीने के कुछ दिन ऐसे होते हैं, जब उन्हें भी इन सारी जिम्मेदारियों से छूट मिल जाती है। ये दिन उन्हें छुट्टी के रूप में मिलते हैं, वह भी सीधे जुगल की ओर से।

जुगल यानी भगवान श्रीराम और माता सीता। तीन से पांच दिनों की जो छुट्टियां राज बहादुर को मिलती हैं, उसे कहते हैं मासिक अवकाश यानी पीरियड्स लीव। दरअसल, राज बहादुर महंत हैं अयोध्या के रामकोट स्थित जुगल माधुरी कुंज मंदिर के। यह मंदिर सखी परंपरा का है और जब माता सीता की सखियां साथ नहीं होतीं तो महंत को सखी भाव में आना पड़ता है। तब उनके सिर पर दुपट्टा और माथे पर चंदन सजा होता है। क्या आपके हाव भाव भी स्त्रियोचित हो जाते हैं? जवाब में राज बहादुर मुस्कुराते हुए कहते हैं, 'विशेष पर्वों पर सखी बनकर जुगल के सामने नृत्य भी करना होता है।'
बदरीनाथ मंदिर के रावल की तर्ज पर परंपरा

यह परंपरा कुछ-कुछ बदरीनाथ मंदिर के रावल जैसी है, जो मंदिर के कपाट खुलते और बंद होते समय लक्ष्मी जी के विग्रह को छूने के लिए स्त्री वेश धारण करते हैं। हालांकि, वहां रावल को उस परंपरा के निर्वाह के लिए स्त्री बनना पड़ता है, जिसके तहत कोई पराया पुरुष किसी स्त्री को नहीं छू सकता। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि विवाह के बाद जब सीताजी अयोध्या आईं, तो उनके साथ उनकी आठ सखियां भी थीं। उन सखियों के नाम थे – चंद्रकला, प्रसाद, विमला, मदन कला, विश्व मोहिनी, उर्मिला, चंपाकला और रूपकला।

इस मंदिर में श्रीराम-सीता के साथ ये आठों सखियां भी विराजमान हैं। हालांकि, सखियां हर समय जुगल के साथ मौजूद नहीं होतीं। राम विवाह, रामनवमी और सावन पर दरबार लगता है सखियों का। इसके अलावा वे शयन कुंज में विश्राम करती हैं। राज बहादुर ने जिस अनोखी सखी परंपरा के बारे में बताया वह इसी विश्राम के वक्त की है।
1898 में हुआ था मंदिर का निर्माण

हवेलीनुमा मंदिर में जुगल के दर्शन के लिए करीब दो दर्जन सीढ़ियां तय करनी पड़ती हैं। यह मंदिर कितना पुराना है? इसके जवाब में यहां के प्रबंधक अभिषेक मिश्र इतिहास में ले चलते हैं। लखनऊ-सीतापुर रोड पर एक छोटी-सी रियासत पड़ती है, भीखमपुर। इसी रियासत की महारानी ने 1898 में वर्तमान मंदिर का निर्माण करवाया था। उसके पहले मंदिर था, लेकिन छोटा-सा। अभिषेक के मुताबिक रानी साहिबा इस मंदिर के पहले महंत मैथिलीशरण भक्त मालीजी महाराज की भक्त थीं। राज बहादुर उसी परंपरा में तीसरे महंत हैं।

इस मंदिर का कामकाज देखने के लिए एक ट्रस्ट है – कामद प्रताप देवराज रानी प्राइवेट धर्मादाय ट्रस्ट। यह मंदिर गृहस्थ गद्दी में आता है। यानी महंत को गृहस्थी बसाने की अनुमति है। मंदिर के सामने का इलाका कहलाता है नजरबाग। कभी यहां इमली के पेड़ हुआ करते थे। नाम को लेकर इतिहास यह बताया जाता है कि अयोध्या नरेश ने यह जमीन हनुमानगढ़ी के नाम नजर यानी दान दे दी थी।

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