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यौन शोषण के आरोप में नहीं हो सकती कार्रवाई!, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने दिया संविधान के अनुच्छेद 361 का हवाला?

नई दिल्ली.

हाउस में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस पर यौन शोषण के आरोप लगाए थे. इसके बाद से कई उतार-चढ़ाव आ चुके. बोस ने जांच के लिए आई राज्य पुलिस को सहयोग देने से साफ मना कर दिया. उन्होंने अपने खिलाफ जांच को गैरकानूनी के साथ-साथ संविधान के खिलाफ भी बता दिया. जानिए, कंस्टीट्यूशन में राज्यपाल को कितनी छूट मिली हुई है, और ऐसे मामलों में क्या होता है.

राजभवन की एक कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी ने पिछले गुरुवार को कोलकाता पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि बोस ने राजभवन में दो बार उसके साथ छेड़छाड़ की. राज्यपाल ने इसे चुनावी माहौल में राजनैतिक फायदे के लिए उठाया कदम बता दिया. बात यहीं खत्म नहीं हुई. राज्यपाल ने कह दिया कि वे पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और उनकी पुलिस को कोई सहयोग नहीं करेंगे. यहां तक कि राजभवन में पुलिस कर्मियों के आने पर रोक लगा दी गई.

अब तक केस में क्या-क्या हो चुका
कोलकाता पुलिस में शिकायत के बाद मामला दर्ज हुआ और राज्यपाल के खिलाफ जांच के लिए एक कमेटी बनाई गई. 8 सदस्यीय कमेटी की अगुआ डिप्टी कमिश्नर (सेंट्रल) इंदिरा मुखर्जी बनाई गईं. उन्होंने राजभवन से बताए गए दिनों के सीसीटीवी फुटेज मांगे. इस फुटेज को देने से इनकार कर दिया गया. दूसरी तरफ गवर्नर हाउस में आम लोगों और मीडिया के लिए ये फुटेज जारी किया गया.

राज्यपाल ने क्या किया
उन्होंने राज्य पुलिस को गवर्नर हाउस के भीतर आने पर रोक लगा दी. इसके लिए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 361 का हवाला देते हुए लिखा कि किसी भी राज्यपाल पर उसके कार्यकाल के दौरान कोई आपराधिक मुकदमा शुरू नहीं हो सकता, न ही इसकी जांच की जा सकती है.

क्या वाकई संविधान खास छूट देता है
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 361 कहता है कि राष्ट्रपति, राज्यपाल या किसी भी राज्य के राजप्रमुख अपने कार्यालय की शक्तियों और कर्तव्यों के प्रयोग और प्रदर्शन के लिए या किए गए या किए जाने वाले किसी काम के लिए किसी भी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं. अनुच्छेद का खंड 2 राष्ट्रपति और राज्यपाल को पूरी छूट देता है कि उनके खिलाफ कार्यकाल के दौरान कोई आपराधिक कार्रवाई शुरू नहीं की जाए. न ही उनकी गिरफ्तारी की प्रक्रिया ही इस दौरान शुरू हो सकती है.

पुराने मामलों में क्या दिखता रहा
गवर्नरों पर पहले भी आरोप लग चुके हैं. मसलन, कांग्रेस नेता एनडी तिवारी जब आंध्रप्रदेश के राज्यपाल थे, उस दौरान एक सेक्स स्कैंडल में उनका नाम आया. कथित सेक्स सीडी में एनडी तिवारी महिलाओं संग आपत्तिजनक स्थिति में देखे गए. इसके बाद उन्होंने सेहत को वजह बताते हुए खुद इस्तीफा दे दिया था. यौन उत्पीड़न के आरोपों का सामना कर रहे मेघालय के राज्यपाल वी षणमुगनाथन ने भी रिजाइन कर दिया था.

क्या कहा था सर्वोच्च अदालत ने
अलग-अलग अदालतें राज्यपालों को मिलने वाली इम्युनिटी पर बात करती रहीं. हालांकि एक बड़ी बात साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने की थी. वो रामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य मामला था, जहां राज्यपाल ने स्टेट में अचानक राष्ट्रपति शासन लगा दिया था. तब कोर्ट ने कहा था कि प्रेसिडेंट और गवर्नर को आर्टिकल 361 में निजी इम्युनिटी मिली हुई है. इसलिए राज्यपाल पर भले ही कुछ गलत करने के आरोप लगाए गए हों, मगर पद पर रहते उन पर कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती. उत्तरप्रदेश के पूर्व सीएम कल्याण सिंह का मामला काफी चर्चित रहा था. बाबरी ध्वंस मामले में कल्याण सिंह जांच से बच गए थे क्योंकि जब ये बात उठी, वे राजस्थान के राज्यपाल पद पर थे. वहीं इसी मामले में उमा भारती और लालकृष्ण आडवाणी समेत कई नेताओं पर मुकदमा चला था. कार्यकाल पूरा होते ही सीबीआई ने मुकदमे के लिए कल्याण सिंह को बुलाने का फैसला किया था, और लखनऊ सेशन कोर्ट से इसकी गुजारिश की थी.

हमेशा के लिए नहीं मिलती छूट
राष्ट्रपति या गवर्नर जब तक पद पर हैं, ये इम्युनिटी केवल उतने ही समय के लिए है. कार्यकाल खत्म होते ही जांच शुरू हो सकती है, और दोषी पाए जाने पर सजा भी हो सकती है.

क्या आरोप लगने पर जांच शुरू हो सकती है
यौन उत्पीड़न या कोई भी मामला लें, जांच तुरंत शुरू होना जरूरी है ताकि मामला स्पष्ट रहे. हालांकि गवर्नर के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चल सकता, या सजा नहीं हो सकती लेकिन जांच के लिए बयान लिया जा सकता है. हालांकि आर्टिकल 361 कहता है कि बेहद जरूरी होने पर ही राज्य प्रमुख का बयान लिया जा सकता है, वो भी ऐसे कि गवर्नर के पद की गरिमा को ठेस न लगे.

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