नई दिल्ली
चुनावी फिजा कैसी भी हो, उत्तराखंड की जनजातियां अपने इलाके में खुद चुनावी हवा तय करती हैं। बावजूद इसके उनके मुद्दे राजनीति के रण में उभर नहीं पाते हैं। सियासत में इस अनदेखी की बड़ी वजह उनका संख्याबल है। जौनसारी, थारू, भोटिया, बोक्सा और वनराजी को भारत सरकार ने 1967 में जनजाति का दर्जा दिया। चकराता का पूरा क्षेत्र अपनी विशिष्ट परंपरा के लिए जनजाति क्षेत्र घोषित किया गया। बोक्सा और वनराजी को आदम जनजाति का दर्जा दिया गया। 2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तराखंड में जनजातियों की कुल जनसंख्या 2.91 लाख थी, जो राज्य की कुल आबादी का 2.89 फीसदी है। यह संख्या बल लोस चुनाव के लिहाज से चुनाव की दिशा तय करने के लिए काफी नहीं, मगर जनजाति बहुल इलाकों में चुनावी हवा कैसे रहेगी, यह जनजातियों खुद तय करती आई हैं और यह समय-समय पर देखा भी गया है।
यहां हैं जनजातियां
टिहरी सीट (चकराता, विकासनगर, सहसपुर और गंगोत्री), गढ़वाल सीट (कोटद्वार, रामनगर, बदरीनाथ), नैनीताल (खटीमा, नानकमत्ता, सितारंगज, बाजपुर, गदरपुर और काशीपुर), अल्मोड़ा सीट (धारचूला, डीडीहाट), हरिद्वार (हरिद्वार ग्रामीण और डोईवाला विस क्षेत्र) जनजातियों की स्थिति जनजातियों की कुल जनसंख्या के हिसाब से थारू 33.4, जौनसारी 32.5, बोक्सा 18.3 और भोटिया 14.2 हैं।
वर्ष 2014 और 2019 में चले हवा के विपरीत
2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बीच चकराता में कांग्रेस के प्रीतम सिंह आगे रहे, इसकी वजह उनका खुद का चकराता से होना था। 2014 में भी ऐसा ही रहा, जब चकराता और भोटिया बहुल धारचूला से कांग्रेस ने मोदी लहर के बीच बढ़त बनाई थी। दोनों चुनाव में थारू प्रभाव वाले इलाके खटीमा से भाजपा को बढ़त मिली थी। इससे पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में खटीमा क्षेत्र से कांग्रेस आगे रही और धारचूला ने भाजपा को आगे रखा था।