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स्मृति शेष :’मौत से ठन गई’ से लेकर ‘आए जिस-जिस की हिम्मत हो’ तक, पढ़िए अटलजी की प्रसिद्ध कविताएं

Atal Bihari Vajpayee 96th Birth Anniversary:digi desk/BHN/  25 दिसंबर को पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी की 96वीं जन्मजयंती है। देश के हर बड़े शहर में आज भी अटलजी की छाप है। आज भी उनके किस्सा याद किए जा रहे हैं। 25 दिसंबर, शुक्रवार को देशभर में उनकी याद में कार्यक्रम किए जाएंगे। अटलजी का शानदार वक्ता के साथ ही एक बेहतरीन कवि भी थे। उनकी कविताएं इंटरनेट मीडिया के दौर में भी खूब पढ़ी जा रही हैं। वे अपने भाषणाओं में भी इन कविताओं का इस्तेमाल किया करते थे। यहां पढ़िए अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) की चुनिंदा मशहूर कविताएं-

शीर्षक: मौत से ठन गई

ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था।

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर, फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न अपनों से बाक़ी है कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

शीर्षक: खून क्यों सफेद हो गया?

भेद में अभेद खो गया.

बंट गये शहीद, गीत कट गए,

कलेजे में कटार दड़ गई.

दूध में दरार पड़ गई.

खेतों में बारूदी गंध,

टूट गये नानक के छंद

सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है.

वसंत से बहार झड़ गई

दूध में दरार पड़ गई.

अपनी ही छाया से बैर,

गले लगने लगे हैं ग़ैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता.

बात बनाएं, बिगड़ गई.

दूध में दरार पड़ गई।

शीर्षक: आज सिन्धु में ज्वार उठा है

आज सिंधु में ज्वार उठा है,

नगपति फिर ललकार उठा है,

कुरुक्षेत्र के कण–कण से फिर,

पांचजन्य हुँकार उठा है।

शत–शत आघातों को सहकर,

जीवित हिंदुस्थान हमारा,

जग के मस्तक पर रोली सा,

शोभित हिंदुस्थान हमारा।

दुनियाँ का इतिहास पूछता,

रोम कहाँ, यूनान कहाँ है?

घर–घर में शुभ अग्नि जलाता,

वह उन्नत ईरान कहाँ है?

दीप बुझे पश्चिमी गगन के,

व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा,

किंतु चीर कर तम की छाती,

चमका हिंदुस्थान हमारा।

हमने उर का स्नेह लुटाकर,

पीड़ित ईरानी पाले हैं,

निज जीवन की ज्योति जला,

मानवता के दीपक बाले हैं।

जग को अमृत का घट देकर,

हमने विष का पान किया था,

मानवता के लिये हर्ष से,

अस्थि–वज्र का दान दिया था।

जब पश्चिम ने वन–फल खाकर,

छाल पहनकर लाज बचाई,

तब भारत से साम गान का,

स्वार्गिक स्वर था दिया सुनाई।

अज्ञानी मानव को हमने,

दिव्य ज्ञान का दान दिया था,

अम्बर के ललाट को चूमा,

अतल सिंधु को छान लिया था।

साक्षी है इतिहास, प्रकृति का,

तब से अनुपम अभिनय होता,

पूरब से उगता है सूरज,

पश्चिम के तम में लय होता।

विश्व गगन पर अगणित गौरव,

के दीपक अब भी जलते हैं,

कोटि–कोटि नयनों में स्वर्णिम,

युग के शत–सपने पलते हैं।

किन्तु आज पुत्रों के शोणित से,

रंजित वसुधा की छाती,

टुकड़े-टुकड़े हुई विभाजित,

बलिदानी पुरखों की थाती।

कण-कण पर शोणित बिखरा है,

पग-पग पर माथे की रोली,

इधर मनी सुख की दीवाली,

और उधर जन-जन की होली।

मांगों का सिंदूर, चिता की

भस्म बना, हां-हां खाता है,

अगणित जीवन-दीप बुझाता,

पापों का झोंका आता है।

तट से अपना सर टकराकर,

झेलम की लहरें पुकारती,

यूनानी का रक्त दिखाकर,

चन्द्रगुप्त को है गुहारती।

रो-रोकर पंजाब पूछता,

किसने है दोआब बनाया?

किसने मंदिर-गुरुद्वारों को,

अधर्म का अंगार दिखाया?

खड़े देहली पर हो,

किसने पौरुष को ललकारा?

किसने पापी हाथ बढ़ाकर

माँ का मुकुट उतारा?

काश्मीर के नंदन वन को,

किसने है सुलगाया?

किसने छाती पर,

अन्यायों का अम्बार लगाया?

आंख खोलकर देखो! घर में

भीषण आग लगी है,

धर्म, सभ्यता, संस्कृति खाने,

दानव क्षुधा जगी है।

हिन्दू कहने में शर्माते,

दूध लजाते, लाज न आती,

घोर पतन है, अपनी माँ को,

माँ कहने में फटती छाती।

जिसने रक्त पीला कर पाला,

क्षण-भर उसकी ओर निहारो,

सुनी सुनी मांग निहारो,

बिखरे-बिखरे केश निहारो।

जब तक दु:शासन है,

वेणी कैसे बंध पायेगी,

कोटि-कोटि संतति है,

माँ की लाज न लुट पाए।

शीर्षक: उनकी याद करें

जो बरसों तक सड़े जेल में, उनकी याद करें।

जो फाँसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।

याद करें काला पानी को,

अंग्रेजों की मनमानी को,

कोल्हू में जुट तेल पेरते,

सावरकर से बलिदानी को।

याद करें बहरे शासन को,

बम से थर्राते आसन को,

भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू

के आत्मोत्सर्ग पावन को।

अन्यायी से लड़े,

दया की मत फरियाद करें।

उनकी याद करें।

बलिदानों की बेला आई,

लोकतंत्र दे रहा दुहाई,

स्वाभिमान से वही जियेगा

जिससे कीमत गई चुकाई

मुक्ति माँगती शक्ति संगठित,

युक्ति सुसंगत, भक्ति अकम्पित,

कृति तेजस्वी, घृति हिमगिरि-सी

मुक्ति माँगती गति अप्रतिहत।

अंतिम विजय सुनिश्चित, पथ में

क्यों अवसाद करें?

उनकी याद करें।

शीर्षक: आए जिस-जिस की हिम्मत हो

हिन्दु महोदधि की छाती में धधकी अपमानों की ज्वाला,

और आज आसेतु हिमाचल मूर्तिमान हृदयों की माला ।

सागर की उत्ताल तरंगों में जीवन का जी भर कृन्दन,

सोने की लंका की मिट्टी लख कर भरता आह प्रभंजन ।

शून्य तटों से सिर टकरा कर पूछ रही गंगा की धारा,

सगरसुतों से भी बढ़कर हां आज हुआ मृत भारत सारा ।

यमुना कहती कृष्ण कहाँ है, सरयू कहती राम कहाँ है

व्यथित गण्डकी पूछ रही है, चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ है?

अर्जुन का गांडीव किधर है, कहाँ भीम की गदा खो गयी

किस कोने में पांचजन्य है, कहाँ भीष्म की शक्ति सो गयी?

अगणित सीतायें अपहृत हैं, महावीर निज को पहचानो

अपमानित द्रुपदायें कितनी, समरधीर शर को सन्धानो ।

अलक्षेन्द्र को धूलि चटाने वाले पौरुष फिर से जागो

क्षत्रियत्व विक्रम के जागो, चणकपुत्र के निश्चय जागो ।

कोटि कोटि पुत्रो की माता अब भी पीड़ित अपमानित है

जो जननी का दुःख न मिटायें उन पुत्रों पर भी लानत है ।

लानत उनकी भरी जवानी पर जो सुख की नींद सो रहे

लानत है हम कोटि कोटि हैं, किन्तु किसी के चरण धो रहे ।

अब तक जिस जग ने पग चूमे, आज उसी के सम्मुख नत क्यों

गौरवमणि खो कर भी मेरे सर्पराज आलस में रत क्यों?

गत गौरव का स्वाभिमान ले वर्तमान की ओर निहारो

जो जूठा खा कर पनपे हैं, उनके सम्मुख कर न पसारो ।

पृथ्वी की संतान भिक्षु बन परदेसी का दान न लेगी

गोरों की संतति से पूछो क्या हमको पहचान न लेगी?

हम अपने को ही पहचाने आत्मशक्ति का निश्चय ठाने

पड़े हुए जूठे शिकार को सिंह नहीं जाते हैं खाने ।

एक हाथ में सृजन दूसरे में हम प्रलय लिए चलते हैं

सभी कीर्ति ज्वाला में जलते, हम अंधियारे में जलते हैं ।

आँखों में वैभव के सपने पग में तूफानों की गति हो

राष्ट्र भक्ति का ज्वार न रुकता, आए जिस जिस की हिम्मत हो ।

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