हम एक बार फिर अपने-आपको ‘दिलासा’, मित्रों, हितैषियों व आलोचकों को नये साल 2021 की शुभकामनायें देने के लिए आतुर हैं। निश्चित है कि शुक्रवार का सूर्योदय नयी संभावनाओं को लेकर उदय होगा। बीते साल में कुछ बीती बातें, कुछ क्या काफी कुछ ‘खट्टे-कड़वे’ अनुभव हमेशा मन को कचोटते रहेंगे..! क्यूंकि ये सिर्फ अनुभव ही नहीं थे जो समय-समय बुजुर्ग अपने आगे की पीढ़ी को ‘समझाने’ की कोशिश में उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत करते रहे हैं बल्कि अपने-आप में सिमटा हुआ पूरा एक इतिहास बन गया है। बीते साल की इस किताब में कुछ ऐसे ‘काले अध्याय’ हैं जिन्हें कभी भी किसी ‘रंगीन स्याही’ से मिटाया नहीं जा सकता है। वे काले हैं और काले ही रहेंगे..! आज की तरुणाई भले ही सब कुछ रंगीन चश्में से देखने की कोशिश कर रही हो, पर सच यह है कि जब रंगीन चश्मा उतरता है तो सब कुछ साफ नजर आता है। शायद यही कारण है कि अब देश में आर्थिक मंदी,बेरोजगारी, मंहगाई,और तरुणाई को अपना भविष्य साफ-साफ अंधेरे में नजर आ रहा है। हमेशा चुप्पी साधे रहने वाला मध्यम वर्ग अब इस पर चर्चा करता है। अब तक यह ऐसा वर्ग रहा है कि इसकी पीठ पर जो भी लाद दो सिर्फ और सिर्फ ढोता रहा है.. बिलकुल धोबी के उस गधे की तरह जिसे उसका मालिक अगर गले में हाथ घुमा कर फंदा डालने भर का अहसास करा दे तब खुला होने का बाद भी गधा मूक रह कर ‘कथित भ्रम’ के खूंटे से बंधा ही रहता है। यह भी सच है कि हमेशा बेरोजगारी, मंहगाई, के कोड़े मध्यम वर्ग की पीठ पर ही पड़ते रहे हैं, यह सदियों की रवायत है कि लहुलुहान पीठ होने के बाद भी वह सिर्फ वादों के बोझ तले अपने दायित्वों की गठरी ढोता रहा है। समय-समय पर सरकार अपनी नीतियों के रंगीन चश्मे पहना कर ‘चाबुक’ उस पर फटकारती रहती है। देश की राजधानी के चारों तरफ पंजाब, हरियाणा के किसान बीते 36 दिन से कड़कड़ाती ठंड में सड़कों पर पड़े हुए हैं सिर्फ इसलिए कि सरकार ने कृषि बिल में जो उसे रंगीन चश्मा पहनाने का भविष्य उन्हें दिखाया है उसमें उन्हें कार्पोरेट के हाथों जमीन के टुकड़े और सब कुछ लुट जाने का सच बिना चश्में के नजर आ रहा है। सरकार के महाराज तो वातानुकूलित कक्षों में चिंतन कर रहे हैं कि विरोध की इस आग से कैसे निपटा जाये परंतु बाहर सड़क पर बैठा किसान जान देने पर भी आमादा है। अब तक कई किसानों की मौत हो चुकी है। अब आप सोचिये कि यह जिद किसानों की है या जिद्दी सरकार की..! सरकार तो सिर्फ राज्यों में सरकार बनाने-बिगाड़ने की चिंता में है जबकि हाड़तोड़ ठंड में जमीन पर लोटते हजारों किसान अपने और अपने परिजनों के भविष्य को लेकर चिंता में हैं। फर्क इतना है कि कुछ लोग ‘राजा’ हैं जो महलों में चिंता कर रहे हैं और जो ‘प्रजा’ है वह सड़कों पर लोटने को मजबूर है….अब आप सोचिये कि यह ‘राजतंत्र’ है या लोकतंत्र..?
सवाल यह है कि क्या इसके लिए सिर्फ बाहर देश से ‘आयातित’ कोरोना वायरस जिम्मेदार है? जिसने समूचे देश को भय के काले बक्से में बंद कर के रख दिया…! या फिर राजनेताओं की वो बातें जिन्होंने अपने भाषणों और वादों से रंगीन चश्में तो बांट दिये परंतु उसकी यह सच्चाई छुपाये रखी कि इसे उतारने पर जो दिखेगा वही सच होगा..! वैसे केवल यह साल ही नहीं, बल्कि विगत दो दशकों की शुरूआत और अंत भी काफी उथल-पुथल भरे रहे। बीते 20 वर्षों के दौरान मानव जाति को डिजिटल से लेकर वित्तीय और अब स्वास्थ्य संकट से उत्पन्न गतिरोध से जूझना पड़ा।
इस कड़ी में यदि इसी साल का उदाहरण लें तो यह वर्ष विरोध-प्रदर्शन, तल्खी और विसंगतियों के नाम रहा है। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के विरोध में हुए शाहीन बाग गतिरोध के बाद दिल्ली में दंगे हो गए। इससे पहले कि दंगों की आग बुझती उसके पूर्व ही कोरोना ने दस्तक दे डाली। अब जब हमें लगा कि बदतर दौर बीत गया तो कृषि कानूनों के विरोध की चिंगारी ने नए विवाद की आग भड़का दी है।
हम आदतन मत-विरोध वाले राष्ट्र के रूप में उभर रहे हैं। असल में हम समस्या से निदान के बजाय संभावित समाधान में ही मीन-मेख निकालने लगे हैं। जिसका ‘राजतंत्र’ फायदा उठा रहा है। राजनीतिक विपक्ष अभी तक वाजिब विरोध के लिए सही आधार तलाशने में नाकाम रहा है। विरोध की बात ही क्या की जाये उसकी तो खुद की जमीन ही नहीं बची..! हाल में राहुल गांधी ने किसानों को हिंदुस्तान का प्रतीक बताया। नि:संदेह किसान हिंदुस्तान के अभिन्न अंग हैं, परंतु यह देश उससे कहीं बढ़ कर है। सच यह है कि शिक्षित मध्य वर्ग के बिना हिंदुस्तान की कल्पना बेमानी है। यह बात अलग है कि राजनीतिक अंकगणित में कमजोर होने के कारण इस वर्ग की अक्सर उपेक्षा होती है। जबकि चाहे वेतनभोगी हो या स्वरोजगारी. ग्रामीण हो या शहरी, यही शिक्षित मध्य वर्ग हिंदुस्तान का सच्चा पूरक और प्रतिनिधि है। राजनीतिक रूप से कमजोर होने के बावजूद इस डिजिटल युग में वे जनमत और छवि निर्माण करते हैं। वे भारत की आत्मा हैं और जो राष्ट्र अपनी आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकता वह कभी प्रगति नहीं कर पाएगा। वास्तव में यही वर्ग नीति निर्माण के केंद्र में होना चाहिए। अगर विपक्ष की आलोचना शिक्षित मध्य वर्ग की सोच से मेल नहीं खाती तो इसका अर्थ यही है कि इस वर्ग को उसकी विश्वसनीयता और विवेक पर संदेह है।
सवाल यह भी उठता है कि जब समय परिवर्तन का होता है तो यह वर्ग खामोश क्यों रहता है..? इस वर्ग की देहरी पर जब राजतंत्र सिर झुकाने आता है तो उससे सवाल क्यों नहीं पूछे जाते कि हमेशा उसकी ही पीठ पर कोड़े क्यों? ‘पीड़ा’ बहुत है पर अगर वह ‘पीठ’ दिखाता है तो लोग उसकी ‘दरिद्रता’ का मजाक उड़ाते हैं और यदि ‘पीठ’ ढक कर रखता है तो ‘राजतंत्र’ समझता है कि यहां तो सब ठीक है। मेरा मानना है कि बूंद-बूंद से तो एक न एक दिन ‘घड़ा ‘भरता ही है। इस ‘घड़े’ से उसकी पीड़ा का ‘जल’ कब छलकेगा,यह तो वक्त बताएगा।
आइये.. एक बार फिर नववर्ष की शुभकामनाओं के रंगीन चश्मे हर साल की तरह परिवर्तन की उम्मीद लेकर कुछ दिन पहन ही लें..। नववर्ष 2021 आप सब की खाली झोलियों में उम्मीदों की बूंदे भर दे, इसी शुभेच्छा के साथ आपको नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
आपका
ऋषि पंडित