“विशेष संपादकीय”
एक बार फिर हम सब देशवासी ‘असत्य पर सत्य’ की जीत का पर्व विजयादशमी मनाने के लिए तैयार हैं। तैयार हम हर साल होते हैं पर बस प्रतीकात्मक रावण के पुतले को फूंक कर पर्व की औपचारिकता निभा लेते हैं। हमारे अंदर जो ‘रावण’ के 10 स्वरूप डेरा डाले बैठे हैं उन्हें हम आज तलक बाहर नहीं निकाल पाये हैं और जो ‘रावण’ बाहर नहीं निकला उसका वध कैसे हो सकता है? शायद यही कारण है कि ‘रावण’ हम सब के भीतर अपने दसों सिरों के साथ जोंक की तरह चिपका हुआ है और हम बाहर ढोल-ढमाके पीट-पीट कर, आतिशबाजी कर उसका पुतला फूंकते हुए तालियां बजा कर खुश हो लेते हैं कि रावण दहन तो हो गया..! और ‘रावण’ अगले साल फिर आने की तैयारी कर भीतर ही दुबक जाता है और मन ही मन हंसता हुआ हमें और हमारी व्यवस्था को चिढ़ाता रहता है कि ‘मुझे’ बाहर कितना भी मारो जब तक हर व्यक्ति के भीतर बैठा ‘रावण’ नहीं मरेगा तब कथित तौर पर ‘रावण’ मारने का यह क्रम चलता रहेगा। विजयादशमी पर देने के लिए ‘उपदेश’ तो बहुत हैं पर वो सिर्फ “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” में ही सिमट कर रह जाते हैं। देश के आम लोगों की ‘व्यथा, कथा’ बहुत सारी हैं, पर्वों पर किसका-किसका बखान किया जाये इसकी सूची बनानी पड़ती है। इस विजय पर्व पर लखीमपुर खीरी की व्यथा-कथा पर विमर्श करने का मन हो रहा है। जो सिर्फ और सिर्फ ‘जिद्दी रावण’ के चलते रामचरित मानस के “लंकाकाण्ड” के रास्ते पर चल पड़ा है…!
ऐसा लगता है जैसे हम खुद किसी सनसनीखेज फार्मूला फिल्म का हिस्सा बन गए हैं। हर रोज एक नया नेता और नया वीडियो खबरों में छाया रहता है। जिन्होंने जान गंवाई, जो घायल हुए. वे अपनी जगह हैं, पर “मेरे किसान, तेरे किसान” के इस कोलाहल में क्या असली मुद्दे ओझल नहीं हो गए हैं? इस रक्त स्नान के साथ क्या एक साल से जारी किसानों का यह अहिंसक आंदोलन कहीं नजीर बनने की राह से भटक तो नहीं गया?
यहां यह भी गौरतलब है कि जिन लोगों की गाड़ियों से किसान कुचले गए, वे सत्तारूढ़ पार्टी और केंद्रीय गृह राज्यमंत्री से जुड़े थे। क्या उनसे इस व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है? गृह राज्यमंत्री के सुपुत्र इस वहशियाना हत्याकांड के नामजद अभियुक्त हैं और सुप्रीम कोर्ट की गहरी नाराजगी के बाद वह पुलिस के समक्ष उपस्थित हुए। क्या उन्हें खुद पुलिस के सामने पेश नहीं हो जाना चाहिए था? समाज के लिए राजनीति हो या राजनीति के लिए समाज? इस पर विचार करने का वक्त आ गया है।
पिछले साल जब पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों से किसानों के जत्थे दिल्ली की ‘देहरी’ पर इकट्ठा हो रहे थे, तब सवाल उभरा था कि वे कब तक टिकेंगे? मौसम, महामारी और किस्म-किस्म के लांछनों से मुकाबला करते हुए वे आज तक डटे हुए हैं। राहगीरों को उनसे दिक्कत है और आसपास के लोग भी परेशान हैं। किसान इससे वाकिफ हैं। उन्होंने हर चंद कोशिश की कि उनके और सरकार के बीच का यह द्वंद्व भटकने न पाए। वे इसमें काफी कुछ कामयाब रहे। पिछले दिनों जब कुछ लोगों ने लाल किले के प्राचीर पर हिमाकत का प्रदर्शन किया, तो यह भरोसा डगमगाया, लेकिन किसान नेता यह समझाने में कामयाब रहे कि यह अराजक और अवांछनीय तत्वों की कारस्तानी थी। लोग मानते हैं, ये ‘धरतीपुत्र’ पसीना बहाकर हमारे लिए अनाज उगाते हैं। इनके बेटे खून बहाकर सीमाओं की रक्षा करते हैं। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं।
इस वक्त भी लखीमपुर खीरी हिंसा के वीडियो से प्रथम दृष्टया प्रतीत होता है कि पहले उनकी भीड़ पर गाड़ियां चढ़ाई गईं और बाद में वे प्रतिहिंसक हो गए। मामला इतना सहज नहीं है। कुछ ऐसे भी वीडियो और फोटो सामने आए हैं, जिनमें जानलेवा डंडा भांजते नौजवानों में से एक की टीशर्ट पर जरनैल सिंह भिंडरावाले की तस्वीर छपी है। अगर ये चल-अचल तस्वीरें सही हैं तो किसान नेताओं को संभल जाना चाहिए। ऐसे तत्व उनके आंदोलन की दिशा भटका सकते हैं। आप इतिहास की पोथियां पलट देखिए। ज्यादातर उन्हीं आंदोलनों ने नई रीति रची जो अहिंसक रहे। कल्पना करें अगर लखीमपुर खीरी में प्रतिहिंसा नहीं हुई होती तो क्या होता..! शांत प्रदर्शनकारियों को कुचलने वाले तब भी उतनी ही सजा के हकदार होते जितने आज हैं..! आज राजनेता चुनावी फायदे के लिए वहां उमडे़ पड़ रहे हैं। वोटों की चाहत में इन सबके भीतर कई ‘रावण’ सिर उठा कर लखीमपुर कांड पर ‘अट्टहास’ कर रहे हैं। …तो क्या दंभी रावण पर समझौतों के बाण चलाकर कोई रास्ता नहीं निकाला जा सकता? पर अगर रास्ता निकल जायेगा तो नेताओं का ‘दंभ’ और ‘जिद’ कहां जायेगी ..! आखिर उनके भीतर भी तो ‘रावण’ के कई सिर हैं और इन सिरों को काटना या दहन करना सियासत के युद्ध में इतना आसान नहीं है।
बहरहाल देखते जाइये..आगे-आगे होता है क्या..! हम,आप तो मैदान में खड़े और फिट में नापे जाने वाले ‘रावण, मेघनाद व कुंभकर्ण’ के धू-धू कर जलने का जश्न मना ही लें…!
आप सभी को विजयादशमी पर्व की आत्मिक शुभकामनायें। प्रयास करें की भीतर बैठे रावण के दस नहीं तो कम से कम एक सिर का इस विजय पर्व पर दहन हो जाये।
ऋषि पंडित
(प्रधान संपादक)