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भारत को ‘किताबी पन्नों’ व राजनीति के ‘अंध कूप’ से बाहर निकालें तभी सच्चा विकास संभव होगा

विशेष संपादकीय

   ऋषि पंडित
(प्रधान संपादक)

समूचा देश एक बार फिर 75वां स्वतंत्रता दिवस पूरी गरिमा एवं उल्लास के साथ मनाने की दहलीज पर है। कोरोना के प्रतिबंधों से उकताया जनमानस अपने भारत देश के लिए उम्मीदों के आसमान में भारतीय तिरंगे को इतना ऊपर पहुंचाने के लिए आतुर है कि कोई भी पड़ोसी देश उन्मुक्त आकाश में लहराते तिरंगे को देख कर भारत की ताकत का अंदाजा लगा सके कि यह भारत अब वो भारत नहीं है जिसकी सीमाओं में कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू खैरा अपनी आंख दिखा सके। तिरंगे का मुक्ताकाश में लहराना आवश्यक भी है। ऊंचाई पर लहराता तिरंगा इस बात का संदेश भी देता है कि यदि भारत को समझना है तो तिरंगे को गर्दन उठा कर ही देखना होगा। यह तिरंगा भारत की विकास गाथा को तो दर्शाता ही है, अपितु भारतवासियों की सहनशीलता, राजपथ की परेड में भारतीय जवानों की एकजुटता, बहादुरी, देशवासियों की मानवीय संवेदना, और वीर सैनिकों के सामूहिक कदम ताल से पुल टूटने जैसी धमक का प्रतीक भी है।

भारत के भाल पर लहराता तिरंगा स्वयं बताता है कि भारत एक है और यदि कोई अखंड भारत को जरा भी खंडित करने की कोशिश करेगा तो उसे धूल चाटनी ही होगी। देश में आतंकी हमलों के बाद दुश्मन देशों के घर में घुस कर मारना और एक-एक शहीद जवान के बहे रक्त के हर एक कतरे का बदला लेना सिर्फ और सिर्फ भारत देश के जाबांज सिपाही कर सकते हैं। दुश्मन देशों की नापाक हरकतों का जवाब देने के लिए इस देश की पवित्र माटी की सौगंध लेकर जब भारतीय सेना के जवान बदला लेने के लिए आगे बढ़ते हैं तो भारतीय सीमाओं से लगे कई देशों की रूह कांप उठती है। हम अपने सैनिकों की जांबाजी को सलाम करते हैं। 

सेना तो सेना, देश के ग्रामीण इलाकों की मिट्टी में पले-बढ़े खिलाड़ी जब ओलंपिक में स्वर्ण पदक, रजत पदक व कांस्य पदक जीतकर समूची दुनिया को यह संदेश देते हैं कि भारतवासी किसी भी क्षेत्र में, किसी भी परिस्थिति में देश के लिए अपना सर्वस्य न्यौछावर करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं तो प्रत्येक भारतवासी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। इसमें बिलकुल भी संदेह नहीं कि देश ने गत 7 दशकों में सामाजिक.आर्थिक उन्नयन के नए कीर्तिमान गढ़े हैं। शिक्षा, चिकित्सा, वाणिज्य, कृषि, रक्षा, परिवहन तकनीकी आदि सभी क्षेत्रों में विपुल विकास हुआ है किंतु सोचनीय यह है भी है कि परिमाणात्मक विकास के इस पश्चिमी मॉडल ने हमारी गुणात्मक भारतीयता छिन्न-भिन्न भी किया है। हमारी संतोष वृत्ति, न्याय के प्रति हमारा प्रबल आग्रह, निर्बलों और दीन-दुखियों की सहायता के लिए समर्पित हमारा संकल्प, सामाजिक,राजनीतिक संदर्भों में वाक्य संयम, धार्मिक जीवन में आडंबररहित उदारता और स्वाभिमान के लिए संघर्ष की चेतना हमारे स्वातंत्र्योत्तर परिवेश में कहीं न कहीं खंडित भी हो रही है।

महात्मा गांधी का हिंद स्वराज मशीनों की गड़गड़ाहट के बीच कथित अत्याधुनिक विकास की भेंट चढ़ चुका है। आज एक ओर नेतृत्व को डिजीटल इंडिया का दिवास्वप्न मुग्ध कर रहा है तो दूसरी ओर बढ़ते साइबर क्राइम ने जनता के जीवन और धन दोनों की सुरक्षा पर गहरे प्रश्नचिन्ह लगा रखे हैं। सत्ता प्रगति और विकास का नारा उछालती हुई नित नई समस्याओं का मकड़जाल बुन रही है और जनता प्रचार तंत्र की प्रायोजित विवेचनाओं में भ्रमित होकर दिशा ज्ञान खो रही है। वाणिज्य और विज्ञान आर्थिक उत्थान के पर्याय प्रचारित होने से जीवन का दिग्दर्शक साहित्य हाशिए पर है और सामाजिक जीवन में निराशाए कुंठा और अवसाद का कुहासा सघन होकर अमूल्य जीवन को आत्मघात के गर्त में धकेल रहा है। सवाल उठता है कि जब सत्ता की दृष्टि में विकास की गाड़ी ठीक पटरी पर चल रही है तब अवयस्क विद्यार्थी से लेकर वयस्क किसान और बेरोजगार युवा से लेकर जिलाधीश जैसे प्रतिष्ठित प्रशासनिक पद पर आसीन व्यक्ति आत्महत्या कर रहा है! आखिर क्यों?

सरकार के दावों के विरुद्ध कड़े वैधानिक प्रावधानों के बाद भी बाल.मजदूरी क्यों जारी है? भ्रष्टाचार, बलात्कार और सामूहिक हिंसा का बुखार चरम पर क्यों है? आजादी की छांव तले पनपते ये सब ज्वलंत प्रश्न आज गंभीर और ईमानदार विमर्श की अपेक्षा कर रहे हैं। जीवन में दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक,रचनात्मक होना आवश्यक है। गिलास पानी से आधा भरा है, यह सकारात्मक दृष्टि कही जाती है और गिलास आधा
खाली है यह नकारात्मक दृष्टिकोण माना जाता है किंतु इन मान्यताओं में सकारात्मकता-नकारात्मकता समान रूप से मौजूद हैं और रहेंगी।
दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के आधे भरे गिलास को ही हम सकारात्मक दृष्टि मानकर भौतिक उपलब्धियों को ही स्वतंत्रता की सार्थकता समझ बैठे हैं और अपने पारंपरिक-नैतिक जीवन-मूल्यों की उपेक्षा करते हुए आज ऐसे अदृश्य बियाबान में आकर फंस गए हैं, जहां साहस और संघर्ष की चेतना लुप्त है और मृत्यु का गहन अंधकार आकर्षक लग रहा है। इसी कारण आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। स्वाधीन देश की सार्वभौमिक सत्ता व्यवस्था के
लिए यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है।

हम अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं पर करोड़ों व्यय करते हैं किंतु अभी भी शुद्ध पेयजल जैसी अनिवार्य सुविधाओं से वंचित सुदूरस्थ गांवों तक पानी पहुंचाने का सार्थक और ईमानदार प्रयत्न नहीं करते। नित नई दुर्घटनाएं होती हैं, जांच समितियां बनती हैं, आयोग बैठते हैं और समस्याएं जस की तसखड़ी रह जाती हैं, क्योंकि न्याय की लंबी प्रक्रिया में दोषी देर तक दंडित नहीं हो पाते। इन बिंदुओं पर अब गहन और निष्पक्ष चिंतन अत्यंत आवश्यक है।

प्रकृति के मनोरम स्थानों में विकास के नाम पर हो रही छेड़छाड़ से पर्वत और नदियां दोनों कुपित हैं। उत्तराखंड और हिमांचल प्रदेश में आये दिन दरकते पहाड़ विकास की बजाय विनाश का कारण बनते जा रहे हैं। यह कैसा विकास है कि हमारी प्रकृति जो सभी प्राणियों को निस्वार्थ भाव से जीवन देने का कार्य करती आ रही है वह तांडव करने पर तुली है…..! सोचना होगा कि कथित विकास का रावण सोने की लंका के लिए शांति के प्रतीक कैलाश रूपी पर्वत को हिलाने में क्यों जुटा है? पर्वतों, नदियों की नाराजगी यदि मानव जीवन को नष्ट करने की हद तक पहुंच गई है तो इसके लिए सत्ता, समाज, धर्म और कथित संवेदना से परे होकर हम सभी को गंभीरता से सोचना होगा कि आये दिन कहर बरपाने वाली प्रकृति को आखिर कैसे मनायें..!
भारत को स्वाधीनता दिवस को राजनीति रस्मी तौर पर मनाने लगी है। एक दिन की देशभक्ति, देश प्रेम,और वीर जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित करने का क्रम दो-चार दिन में ही थम जाता है और स्वतंत्रता दिवस पर लिये गये संकल्प राजनीतिक गलियारों के गहन अंधेरे कुएं में खो जाते हैं जहां उन्हें साल भर बाद फिर बाहर आने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। राष्ट्रीय पर्वों को रस्म अदायगी ना मान कर जिस दिन जनप्रतिनिधि, नौकरशाहऔर देश की जनता सचमुच स्वाधीनता की राह पर चल निकलेंगे उसी दिन से भारत किताबी पन्नों से निकल कर सच्चे विकास के पथ पर चल पड़ेगा..!

“भास्कर हिंदी न्यूज” परिवार की ओर से आप सभी को 75 वें स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

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